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________________ 230 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 (८७) अम्भिर्य (८८) आसूर्य (८९) मृगपक्षिरुत (९०) हेतुविद्या (९१) जलयन्त्र (९२) मधूच्छिष्टकृत (९३) सूचीकर्म (९४) विदलकर्म (९५) फाच्छेद्य (९६) गन्धयुक्ति । इस प्रकार शान्तिभिक्षु शास्त्री ने छानबें कलाओं का उल्लेख किया है जिनमें वेद, पुराण, इतिहास, व्याकरक, निरुक्त, सांख्य योग, वैशेषिक, ज्योतिष तथा शिक्षा आदि का भी कलाओं के अन्तर्गत समाहित किया है । जब कि कला का अर्थ होता है कार्य को भलीभाँति करने का कौशल, योग्यता आदि । अतः पुराण, इतिहास, वेद आदि शास्त्रों को कला के अन्तर्गत रखना उचित नहीं जान पड़ता । बौद्ध ग्रन्थ मिलिन्दपञ्ह' के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि सभी शिक्षाएँ सभी व्यक्तियों के लिए नहीं थीं । सम्भवतः जाति एवं वर्ण के आधार पर उसका विभाजन किया गया था। क्योंकि वर्णन है— ब्राह्मण चार वेद, इतिहास, पुराण कोश, छंद, उच्चारण विद्या, व्याकरण, निरूक्त, ज्योतिष, छः वेदांग, शरीर के शुभ-सूचक चिह्नों का ज्ञान, शकुन विज्ञान, स्वप्न और चिह्नों का विज्ञान, ग्रहों, भूकम्प, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, गणित, वितर्क विज्ञान आदि विषयों का अध्ययन करते थे । क्षत्रिय हाथियों, अश्वों, धनुविद्या, रथों, खड्ग विद्या, युद्ध विद्या, दस्तदिजों का ज्ञान और मुद्रा विज्ञान का अध्ययन करते थे । अवशेष बचे हुए, जैसे-कृषि विज्ञान, वाणिज्य और पशुपालन की शिक्षा वैश्य और शूद्र प्राप्त करते थे । जातकों में अट्ठारह प्रकार की विद्याओं का उल्लेख मिलता है । जो इस तरह हैं(१) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद (२) स्मृति (३) व्याकरण (४) छन्दोविचित (५) निरुक्ति (६) ज्योतिष ( ७ ) शिक्षा (८) मोक्षज्ञान ( ९ ) क्रिया विधि (१०) धनुर्वेद (११) हस्ति शिक्षा (१२) कामतन्त्र (१३) लक्षण (१४) पुराण (१५) इतिहास (१६) नीति (१७) तर्क तथा (१८) वैद्यक । । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध, दोनों ही शिक्षाएँ निवृत्ति प्रधान हैं। दोनों के उद्देश्य मानव व्यक्तित्व का समग्र विकास करना है । विकास का अभिप्राय व्यक्ति के अंतरंग एवं बाह्य सभी गुणों से है जैन शिक्षा व्यक्तित्व के चरम विकास की स्थिति को मोक्ष कहती है तो बौद्ध शिक्षा दुःखों के अन्त को निर्वाण कहती है । यद्यपि दोनों के उद्देश्य एक ही हैं लेकिन मार्ग अलग-अलग हैं। जहाँ तक विषयों का सवाल है तो जैन शिक्षा के विषय अपने आप में पुष्ट तथा सर्वमान्य हैं । लेकिन बौद्ध शिक्षा के विषयों को लेकर कहीं-कहीं विरोधाभास नजर आते हैं यथा— एक ओर विनयपिटक 3 में कहा गया है कि लोकायत नहीं सीखना चाहिए, जो सीखे उसे दुक्कट का दोष हो । वही दूसरी ओर सेलसुत्त जातक में शैल नामक एक ब्राह्मण १. मिलिन्दपञ्हपालि - ४१३ १६ तथा देखें आर० के० मुखर्जी, एन्सिएण्ट इण्डियन एजूकेशन - पृ० ४७५ । २. जातक (अनु० ) हिन्दी जिल्द १, पृ० ३८३ । ३. विनयपिटक, राहुल सांकृत्यायन, पृ० ४४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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