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________________ प्राकृत के प्रतिनिधि महाकाव्यों की भाषा 195 [३] स्वरों के बीच के ट का ड आदेश हुआ है । यथा तट = तड (सेतु० ९।९४); पटी = पडी (गउ० ७६९); पटल = पडल (कुमा० ३।३९); कटकं = कडयं (लीला० १९४)। [४] स्वरों के बीच त, द तथा थ का अनेक स्थलों में क्रमशः ड और ढ का आदेश हआ है । यथा(i) त = १-प्रतिसार = पडिसार (सेतु० ११।१); प्रतिष्ठित = पडित्थिअ (गउ० ११०) प्रतिभा = पडिहा (कुमा० ११३८); प्रतिहार = पडिहार (लीला० ९०१)। (ii) त = ढ-श्रान्त = सुढिअ (गउ० ९८); विक्षिप्त = विच्छूढ (गउ० ३६६)। (iii) द =t-सूदन = सूडण (गउ० १५९); कदन = कडणा (कुमा० २।४६)। (iv) व = ढ-आदृत = आढिअ (कुमा० १।९०)। (v) य = ढ-शिथिल = सिढिल (सेतु० ५।७१) (लीला० ७४१) (कुमा० १।६०)। प्रथम = पढम (गउ० ५७२) । [५] न के स्थान में ण का आदेश हुआ है । यथा नदी=णई (सेतु० ८।३३); नाल = णाल (गउ० ६२९); कदन = कदण (कुमा० २।४६); वदन = वयण (लीला० ७६१) । [६] दो स्वरों के मध्यवर्ती प का लोप हो गया है । यथा कपि = कइ (सेतु० १३।८८; १५।५); रिपुषु = रिउसु (गउ० २४१); कपि = कइ (लीला); नूपुर = निउर (कुमा० ११७५; ३॥४१) । [७] अनेक शब्दों में स्वर सहित व्यंजन का लोप हो गया है । यथा मयूख = मोह (सेतु. ११४८) (कुमा. २।४); मयूखा = मऊहा (गउ० ३६३) तथा (लोलावई-५)। [८] कहीं-कदी ढ का ह आदेश हुआ है । यथासोढे = सहिअम्मि (सेतु० ११।११२); लेढि = लिहइ (कुमा० ७.१९) । (ग) संयुक्त व्यंजन [१] क्ष के स्थान में प्रायः ख, क्ख तथा स्क के स्थान में न आदेश हुआ है । यथा(i) = ख-क्षण = खण (सेतु० ११११६) (गउ० ११५५) (लोला० १४३); क्षय = खअ (कुमा० ८।५३ )। (ii) R = पल-राक्षस = रक्खस (सेतु० ४।६०; ११।२); तत्क्षण = तक्खण (गउ० ३६६) (लोला० १४१); मोक्ष = मुक्ख (कुमा० ७।३७, ४७) । (iii) स्क = ख-स्कन्ध = खंघ (सेतु० ११११२७) (कुमा० ४।२९, २१३८); स्कन्धा-क्खंघा (गउ० १४८); स्कन्धावारः-खंधारो (लीला० १११६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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