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प्राकृत के प्रतिनिधि महाकाव्यों की भाषा
शैलेन्द्र कुमार राय* भाषा का विश्लेषण
__भाषा मनोभावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति का मध्यम है । मनुष्य अपने मनोभावों एवं विचारों की अभिव्यंजना भाषा के माध्यम से ही करता है । अतः मानवीय संस्कृति के विकास में भाषा का बड़ा महत्व है । इस समय संसार में सैकड़ों नहीं, बल्कि हजारों भाषाएँ प्रचलित हैं। इन भाषाओं के मौलिक लक्षणों पर विचार करके भाषा-शास्त्र के विद्वानों ने उनका वर्गीकरण कहीं कतिपय भाषा परिवारों में किया है, जैसे-भारोपीय परिवार, द्रविड़ परिवार, सामीपरिवार, हामी परिवार, चीनी परिवार आदि। इन भाषा-परिवारों में भारोपीय भाषापरिवार सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसी परिवार से विकसित हुई विविध भाषाएँ आज प्रायः समस्त सुसभ्य और समुन्नत देशों में पायी जाती हैं। इसी परिवार की एक शाखा यूरोप की ओर फैली, जिससे ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं का विकास हुआ और दूसरी शाखा ईरान में फारसी तथा भारत में आर्य अर्थात् वैदिक भाषा के रूप में प्रकट हुई। इस प्रकार वैदिक काल से वर्तमान-काल तक भारत में आय-भाषा का जो विकास हुआ है, उसे भाषा-विशारदों ने तीन युगों में विभक्त किया है-प्राचीन, मध्य और वर्तमान । प्राचीन-युग की भाषाएँ क्रमशः वैदिक और संस्कृत के नाम से विख्यात हैं। मध्ययुग की भाषाओं में पुनः तीन स्तर पाये जाते हैं-आदि, मध्य और उत्तर । आदिकाल की प्रमुख भाषा पाली, मध्यकाल की प्राकृत तथा उत्तरकाल को अपभ्रंश है। वर्तमान-काल की भाषाओं में हिन्दी, मराठी, गुजरातो, बंगला आदि भाषाएँ प्रमुख मानो जाती है। '
प्राकृत महाकाव्यों में प्रवरसेन विरचित 'सेतुबन्ध', वाक्पतिराज विरचित 'गण्डवहो'; आचार्य हेमचन्द्र विरचित 'कुमारपालचरित' तथा कोऊहल विरचित 'लीलावई' सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं उत्कृष्ट महाकाव्य हैं। इन प्रतिनिधि महाकाव्यों को भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। अतः महाराष्ट्रो प्राकृत का एक विहंगमावलोकन आवश्यक प्रतीत होता है
महाराष्ट्री प्राकृत : एक विहंगम दृष्टि लगभग अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर और बुद्ध के समय में प्रतिष्ठित होने के बाद प्राकृतों का विकास समग्र आर्य-भारतीय भाषा प्रदेश में हुआ। उसके बाद अश्वघोष के काल में इन्हें साहित्यिक रूप मिलने लगा। कई संस्कृत नाटकों में विभिन्न प्रकार के पात्रों
* विभागाध्यक्ष, प्राकृत-विभाग, एस० बी० ए० एन० कॉलेज, दरहेटा-लारो,
जहानाबाद, बिहार (मगध विश्वविद्यालय अन्तर्गत)।
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