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________________ तीर्थंकर ऋषभनाथ का जटा-जूटयुक्त प्रतिमाङ्कन 185 तथा "स रेजे भगवान् दीर्घजटाजालहुतांशुमान् ।' तीर्थकर आदिनाथ-प्रतिमा में जटाएं, जटाजूट और जटामुकुट का अंकन मूर्तिकला के प्रारम्भ से सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी तक अनवरत रूप से किया जाता है । पहले स्कन्धों तक लटकी हुई स्वाभाविक जटाएँ, उपरान्त कंघी की हुई लम्बी जटाएँ, तदोपरान्त जटा-जूट, और उसके उत्तरवर्ती शिल्पकारों में तो आदिनाथ-प्रतिमा के जटा जूट, जटा-मुकुट के अंकन में मानों कला प्रदर्शन की स्पर्धा सी होने लगी थी। प्रस्तुत अल्पलेख में हम सैन्धव सभ्यता से बारहवीं शती तक की तीर्थंकर ऋषभनाथ की कतिपय ऐसी मूर्तियों का उल्लेख करेंगे, जो जटाओं, जटा-जूट और जटा-मुकुट अंकन की दृष्टि से अपना महत्व रखती हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों में एक विशाल स्कन्धयुक्त वृषभ तथा एक खड्गासन धड़ के अतिरिक्त एक जटाधारी योगी का अंकन प्राप्त हुआ है। यदि ये जैन मूर्तिकला के अवशेष है तो जैनमूर्तिपूजा की परम्परा लगभग २३ सौ वर्ष ईसा पूर्व से प्रचलित प्रमाणित होती है। क्योंकि वहां से प्राप्त धड़ जैन तीर्थंकर-मूर्ति से मिलता-जुलता है और तीर्थकर ऋषभनाथ की तो अधिकांश प्राचीनतम प्रतिमाएं जटायुक्त ही प्राप्त हुई है । इसलिए सैन्धवसभ्यता के उस जटाधारी योगी को तीर्थंकर ऋषभनाथ का अंकन माना जा सकता है। विहार के चौसा नामक ग्राम से अठारह जैन धातु प्रतिमाओं की उपलब्धि हुई है। उनमें से छह तीर्थकर ध्यानमुद्रा में और दस कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। एक कायोत्सर्ग तीर्थकर मूर्ति की स्कन्धों तक लटकी जटाएँ हैं, जिससे उसे ऋषभनाथ की प्रतिमा पहचाना गया है। यह मूर्ति प्रथम शती की है। तथा ऋषभनाथ की दो और पद्मासन प्रतिमाओं की पहचान भी उनके कन्धों तक आये केशों से हो सकी है । ये दोनों प्रतिमाएं ठीक-ठीक अनुपात में बनायी गयी हैं। इनका चेहरा पुष्ट एवं अण्डाकार है। केशों को दोनों ओर लटकते हुए दिखाया गया है तथा सिर के बीच के बालों की मांग निकाली गयी है। बालों के गुच्छों को लहरों की भाँति कंधों पर फैला हुआ दिखाया गया है। मथुरा से अनेक जैन तीर्थंकर-मूर्तियाँ प्राप्त हुई है, उनमें से दो जटा-जूटयुक्त ऋषभनाथ को मूर्तियां हैं। एक मूर्ति कायोत्सर्ग:मृद्रा में है, जिसका सिर खण्डित है। यह मूर्ति जटाधारिणी है, जिसकी जटाएँ कन्धों पर लटकी हुई हैं । पाश्वों में चवरधारी अनुचर है। तीर्थकर के आसन के बीच में धर्मचक्र है, चक्र के दोनों किनारों पर एक-एक सिंह अंकित है। और दूसरी मूर्ति" कायोत्सर्ग मुद्रा में है। इसके केश कंघी से काढ़े हुए से अंकित हैं तथा १. वही ४।५ । २. प्रेमसागर जैन, भरत और भारत, पृ० १० । ३. जैनकला एवं स्थापत्य भाग-१ प्लेट ५५A, ५६ । ४. पुरातत्व संग्रहालय मथुरा, मूर्ति सं० बी० ७ । ५. वही, १२-२६८। ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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