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________________ नियमसार : कतिपय विशेष सन्दर्भ ___डॉ० ऋषभचन्द्र फौजदार* आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाएं दिगम्बर परम्परा में आगमतुल्य मानी जाती है । उनकी रचनाओं में नियमसार, समयसार आदि ग्रन्थों से किसी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं है । नियमसार में जैन श्रमणाचार का प्रतिपादन बहुत ही स्पष्ट रीति से किया गया है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में आचार्य ने वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके केवलियों और श्रुतकेवलियों द्वारा कहे गये नियमसार को कहने की प्रतिज्ञा की है। 'नियमसार' नाम की सार्थकता स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि जो नियम से करने योग्य है, वह 'नियम' ज्ञान, दर्शन और चारित्र है । इनसे विपरीत भावों का परिहार करने के लिए 'सार' पद कहा गया है ।' आचार्य ने नियम शब्द से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का ग्रहण किया है । यही तीनों मिलकर मोक्षमार्ग हैं । इन तीनों को ही रत्नत्रय भी कहते हैं । मोक्षमार्ग के लिए नियम शब्द का प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द ने ही किया है जो अन्यत्र कहीं देखने का नहीं मिलता । वे कहते है कि नियम मोक्ष का उपाय है और उसका फल परमनिर्वाण है। नियमसार को टीकाकार पद्मप्रभमहधारिदेव ने भागवतशास्त्र कहा है और इसके अध्ययन का फल शाश्वत सुख बताया है। इसे टीकाकार के शब्दों में देखिये-"भागवतं शास्त्रमिदं निर्वाणसुन्दरोसमुद्भवपरमवोतरागात्मकनिाबाधनिरन्तर-अनंगपरमानन्दप्रदं निरतिशयनित्यशुद्धनिरञ्जननिजकारणपरमात्मभावनाकारणंसमस्तनयनिचयाश्चित पंचमगतिहेतुभूतं पञ्चेन्द्रियप्रसरवजितगात्रमात्रपरिग्रहेण निर्मितमिदं ये खलु निश्चय-व्यवहारनययोरविरोधेन जानन्ति ते खलु महान्तः समस्ताध्यात्मशास्त्रहृदयवेदिनः परमानन्दवीतरागसुखाभिलाषिणः परित्यकबाह्याभ्यन्तरचतुर्विशतिपरिग्रहप्रपंचाः त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरतनिजकारणपरमात्मस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणात्मकभेदोपचारकल्पना-निरपेक्षस्वस्थरत्नत्रयपरायणाः सन्तः शब्दब्रह्मफ्लस्य शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्तीति ।"3 आचार्य की प्रतिज्ञानुसार नियमसार का प्रतिपाद्य सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप नियम और उसका फल निर्वाण है, लेकिन इसमें नियम से सम्बन्धित अन्य विषय भी आ गये है, जिनका उल्लेख टीकाकार इस प्रकार करते हैं-'किञ्चास्य खलु निखिलागमार्थसार्थप्रतिपादन * सम्पादक, जैन सिद्धान्त भास्कर, महाजन टोली नं० २, आरा (बिहार) । १. नियमसार, गा० ३। २. वही, गा० ४ । ३. नियमसार, तात्पर्यवृत्ति टीका, गा० १८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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