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________________ 174 Vaishali Institute Research Bulletin No. Ź दंत, लाख, क्षार पत्थर और सूत आदि से नाना प्रकार के खिलौने, वस्त्र एवं गृहोपयोगी वस्तुओं का निर्माण करना नारी-शिक्षा के अन्तर्गत बताया गया है। मेय, देश, तुला और काल भेद से विभिन्न प्रकार के मानों का परिज्ञान प्राप्त करना एवं वस्तुओं के ठीक नाप-तौल को जानना भी शिक्षा के अन्तर्गत था। जीव-विज्ञान, जन्तुविज्ञान, चिकित्साविज्ञान (विशेषतः बाल पोष या धातु विज्ञान), निदान विज्ञान आदि की शिक्षा दी जाती थी। कन्दुक क्रीड़ा, अक्ष कीड़ा, वीणा क्रीड़ा आदि को शिक्षा भी महत्त्वपूर्ण है। भूगोल, इतिहास, वनस्पतिशास्त्र की भी शिक्षा राजकुमारियां प्राप्त करती थीं। इतना ही नहीं संवाहन कला की शिक्षा भी उन्हें दी जाती थी। संवाहन कला के दो भेद बताए हैं - कर्मसंश्रया और शय्योपचारिका । त्वचा, मांस, अस्थि और मन इन चारों को सुख पहुचाने के कारण कर्मसंश्रया के चार भेद बताए गए हैं। इसके अतिरिक्त संस्पृष्ट, गृहीत मुक्तित, चलित, आहत, भंगित, विद्ध, पीड़ित और भिनित भेद भी आए है। मृदु, मध्य और प्रकृष्ट के भेद से प्रत्येक संवाहन कला के तीन-तीन उपभेद हैं। जिस प्रकार संवाहन कला में शरीर के सुख पहुँचाने वाले कारण गुण कहलाते हैं, उसी प्रकार कष्ट पहुंचाने वाले साधन दोष हैं । दोषों के अन्तर्गत रोमों का उदवर्तन, केशाकर्षण, भ्रष्टप्रप्त, अद्भत, अमार्गप्रयात, अतिभुग्नक, अदेशाहन, अव्यर्थ और अवसुप्तप्रतीपक की गणना की गयी है। आसनों का अर्थ यही है कि जिस स्थिति से या लेटने से संवाहन क्रिया करने पर सुख की अनुभूति हो वही आसन सुखप्रद है । स्नान करना, सिर के बाल गूंथना तथा उन्हें सुगन्धित करना यह शरीर संस्कार वेष कौशल नामक कला कहलाती है । केकया इसे अच्छी तरह जानती थी। इस प्रकार केकया की शिक्षा विधि से तत्कालीन राजकुमारियों और सामान्य नारियों की शिक्षा का सम्यक् ज्ञान प्राप्त किया जाता है । नारियों में संगीत शिक्षा का उल्लेख जैन वाङ्मय के अनेक ग्रन्थों में मिलता है । जिनसेन प्रणीत हरिवंशपुराण (वि० सं० ८४०) के १८वें सर्ग में चारुदत्त सेठ की पुत्री गन्धर्वसेना ने चम्पापुरी में वसुदेव से सङ्गीत विषयक अनेक कठिन प्रश्न शास्त्रार्थ में पूछे थी। यद्यपि वसुदेव ने युक्तिपूर्ण उत्तर दिए फिर भी उससे उसका सङ्गीत एवं गान्धर्व विद्या के गम्भीर अध्ययन का पता चलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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