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________________ 162 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 उल्लेखों से द्रोण की लोकप्रियता एवं त्रिभुवन-स्वयम्भू से उसका पूर्ववत्तित्व-मात्र ही सिद्ध होता है। इस प्रसंग में महाकवि राजशेखर का वह उल्लेख विशेष महत्व का है, जिसमें उसने द्रोण-कवि को व्यासस्पर्धी कहते हुए उसे कुलाल जाति में उत्पन्न कहा है। वह उल्लेख निम्न प्रकार है सरस्वतीपवित्राणां जातिस्तत्र न कारणम् । व्यास्पर्धी कुलालोऽभूद्यद् द्रोणोभारते कविः ॥ (शार्ङ्गधरपद्धति) अर्थात-"सरस्वती से पवित्र पुरुषों के लिए जात-पात का कोई महत्त्व नहीं। कवि द्रोण यद्यपि जाति से कुलाल था, फिर भी विद्या-बुद्धि में वह व्यास ऋषि का स्पर्दी था।" राजशेखर के इस कथन से विदित होता है कि द्रोण ने भी अपभ्रंश में महाभारत कथा सम्बन्धी कोई ऐसी विशाल कृति अवश्य लिखी थी, जो महर्षि व्यास के महाभारत से भी विशाल रही होगी और जो परवर्ती कवियों के लिए एक आदर्श प्रेरक ग्रन्थ रहा होगा। ईसान-अपभ्रंश-ग्रन्थ-प्रशस्तियों के अतिरिक्त इसका उल्लेख "गाथासप्तशती" में मिलता है । महाकवि बाणभट्ट ने भी उसे "भाषाकविरीशानः परंमित्रम्' कहकर उसे अपने परम मित्र के रूप में स्मरण किया है ।२ बाणभट्ट के उल्लेख से दो बातें स्पष्ट है-(१) वह बाणभट्ट का समकालीन था, तथा (२) वह भाषा कवि अर्थात् प्राकृत-अपभ्रंश का कबि था। ईसान की प्रौढ़ काव्य-प्रतिभा का परिचय गाथासप्तशती के निम्न पद्यों से मिलता है। अपनी रूपवती भार्या से युक्त रहते हुए भी ह्वालिक पुत्र प्रेमिक के सौन्दर्य से आकृष्ट होकर उसके विरह में इतना क्षीण हो जाता है कि उसकी जीवन रक्षा के लिए स्वयं उसकी भार्या को ही उसके पास जाकर दौत्यकर्म करना पड़ता है । कवि कहता है सो तुज्झ कए सुन्दरि तह छीणो सुमहिलो हलि अउत्तो। जह से मच्छरिणीए वि दोच्चं जाआए पडिवणं ॥ १।८४ अर्थात-हे सुन्दरि, अपनी रूपवती भार्या से युक्त रहते हुए भी हालिक पुत्र तुम्हारे सौन्दर्य से आकृष्ट होकर तुम्हारे विरह में इतना क्षीण हो गया है कि तुमसे ईर्ष्या करने वाली उसकी भार्या ही उसके जीवन की आशंका से भर कर तुम्हारे पास उसका दौत्यकर्म सम्पन्न कर रही है । एक दूसरे प्रसंग में अपनी प्रियतमा की कृशता को देखकर प्रियतम के द्वारा कारण पूछे जाने पर प्रियतमा उत्तर देती है उज्झसि पिआइ सम तह विहुरे भणसिकीसकिसिति । उवरिमरेण अ अण्णुअ मुअइ बहल्लो वि अंगाई ॥ ३७५ अर्थात्-तुम अपनी प्रेमिका के साथ मेरे वक्षस्थल पर ढोए जा रहे हो। फिर भी, मेरी १. सुभाषितरत्नभाण्डागारम्, निर्णय सागर० बम्बई, १९११ ई० पृ० ३६, श्लोक २१ । २. हर्षचरितं, चौखम्बा० १९६४, पृ० ७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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