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________________ 158 तक लगातार गोपाचल दुर्ग में जैन मूर्तियों का निर्माण होता रहा ।' अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा स्वयं रइधू ने सम्पन्न की थी, जिनमें ८४ फीट ऊँची आदिनाथ की मूर्ति भी सम्मिलित है । डूंगरसिंह के विशेष अनुरोध पर महाकवि रघु ने गोपाचल दुर्ग में बैठकर अपनी अधिकांश रचनाएँ लिखी थीं । Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 गोपाचल दुर्ग के समीपवर्ती पनियार के जिन चैत्यालय में बैठकर रइधू के गुरु भट्टारक यशःकीर्ति ने महाकवि स्वयम्भूकृत "रिट्ठमिचरिउ" की जीर्ण-शीर्ण प्रति का उद्धार तथा पं० विबुध श्रीधरकृत 'सुकुमालचरिउ' (अपभ्रंश) एवं 'भविष्यदतकाव्य' (संस्कृत) की प्रतियों का प्रतिलिपि कार्य किया था । " अजमेर एवं दिल्ली के चौहानवंशी नरेशों की चर्चा भारतीय इतिहास में पर्याप्त मात्रा में मिलती है । उनके साथ चन्द्रवाड पट्टन के चौहानों का नामोल्लेख भी नहीं मिलता । किन्तु अपभ्रंश के कवियों ने उनके साथ बड़ा न्याय किया है । महाकवि लक्ष्मणसेन (वि० सं० १३१३), धनपाल (वि० सं० १४५४), महाकवि रइधू' (वि० सं० १४४० - १५३० ) तथा नागकुमार चरितकार (वि० सं० १५११) ने उस वंश के १७ राजाओं की चर्चा अपनी ग्रन्थ-प्रशस्तियों में की है । इस सन्दर्भ सामग्री के आधार पर चन्द्रवाडपट्टन शाखा के चौहान राजाओं का प्रामाणिक इतिहास तैयार हो सकता है । जैन कवियों ने अपनी प्रशस्तियों में राजाओं को ही नहीं, उनके साहित्य रसिक मन्त्रियों की भी चर्चा की है । अभिमानमेरु पुष्पदन्त ने अपने आश्रयदाता तथा राजा कृष्णराज (तृतीय) के महामात्य भरत के विषय में लिखा है कि- "युद्धों का बोझ ढोते ढोते महामात्य भरत के कन्धे घिस गये थे ।” कवि ने पुनः लिखा है कि "महामात्य भरत का राजमहल विद्या- विनोद का स्थान बन गया था । वहाँ पाठक निरन्तर पढ़ते रहते थे, गायक गाते रहते थे और लेखक सुन्दर-सुन्दर काव्य लिखते रहते थे । उस भरत में न तो गुणों की कमी थी और न उसके शत्रुओं की ही कमी थी । वह समस्त कलाओं और विद्याओं में कुशल था । प्राकृत-कवियों की रचनाओं पर वह मुग्ध था । उसने सरस्वती का दूध पिया था । लक्ष्मी उसे चाहती थी । वह सत्यप्रिय एवं निर्मत्सर था ।"१० १. दे० वही । २. रइधूकृत सम्मतगुणणिहाणकत्व आद्य प्रशस्ति (अप्रकाशित ) । ३. रइधूकृत (आद्यप्रशस्ति) अप्रकाशित । ४. दे० रद्दधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन (भट्टारक प्रकरण) । ५. दे० रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन । ६- ९. यह साहित्य अद्यावधि अप्रकाशित है । इनको प्रशस्तियों में संदर्भित चौहानवंशी राजाओं का वर्णन आया है । विशेष के लिये देखें-परिषद पत्रिका, (पटना, ९०१ पृ० २० - २१ ) में प्रकाशित मेरा निबन्ध, अपभ्रंश - साहित्य- प्रशस्तियाँ । १०. दे० पुष्पदन्तकृत महापुराण, ११५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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