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________________ मध्यकालीन जैन साहित्य का ऐतिहासिक मूल्यांकन 159 उपलब्ध है।' इनमें नन्दवंश की उत्पत्ति, उनका पारिवारिक परिचय एवं राज्यकाल, जाति, कार्य-कलाप एवं राज्य-समाप्ति के कारणों के साथ ही मौर्यवंश का अभ्युदय, चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) का आचार्य चाणक्य से परिचय, उसकी शिक्षा, संघर्ष एवं विजय, चाणक्य का इतिवृत्ति तथा मगध के साम्राज्य विस्तार में उसकी भूमिका का विस्तृत वर्णन मिलता है। उक्त वर्णनों का वैशिष्ट्य यह है कि जहाँ जेनेतर साहित्य में चाणक्य के उत्तरवर्ती जीवन को प्राप्ति दुर्लभ है, वहीं जैन-साहित्य में उसके उत्तरवर्ती जीवन का विस्तृत वर्णन मिल जाता है। जैन-साहित्य के अनुसार अपना लक्ष्य पूर्ण करने के बाद चाणक्य ने जैन-दीक्षा ग्रहण कर ली तथा ५०० शिष्यों के साथ वे दक्षिणापथ के 'वनवास' स्थल पर पहुँचे और वहाँ से पश्चिम दिशा में महाक्रौञ्चपुर के एक गोकुल नामक स्थान में वे ससंघ कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ हो गये। वहां उनके पूर्व के राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी मन्त्री सुमित्र ने अवसर देखकर घेराबन्दी कर आग लगवा दी, जिसमें वे ससंघ जलकर समाप्त हो गये। मध्यकालीन जैन-साहित्य की दूसरी विशेषता है, उसका प्रशस्ति-लेखन । इनके माध्यम से कवियों ने पूर्ववर्ती एवं समकालीन आचार्यों, लेखकों, राजाओं, भट्टारकों आश्रयदाताओं एवं नगरवेष्ठियों के कार्य-कलापों की चर्चाओं के साथ-साथ राजनैतिक, आर्थिक एव भौगोलिक तथ्यों को भी प्रस्तुत किया है । महाकवि श्रीचन्द्रकृत 'कहकोसु' नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति से विदित होता है कि कवि ने अपना उक्त ग्रन्थ राजा मूलराज के राज्यकाल में गुजरात के महीयड-देश में समाप्त किया था। कवि का रचनाकाल वि० सं० १०५२ के आस-पास रहा है । इससे यह विदित होता है कि उक्त राजा मूलराज 'सोलंकी-वंश' का था। उसने वि० सं० ९९८ में चावड़ा वंशोत्पन्न अपने मामा सामन्तसिंह को मारकर उसका राज्य छीन लिया था तथा वह स्वयं गुजरात की राजधानी पाटन (अणहिलवाड) की गद्दी का स्वामी बन बैठा था । उसने वि. सं. १०१७ से १०५५ तक राज्य किया था। __उक्त मूलराज के पिता का नाम भीमदेव था। उसके तीन पुत्रों में से मूलराज सबसे बड़ा पुत्र था। जिसकी मृत्यु उसके जीवनकाल में ही हो चुकी थी। बाकी के दो पुत्रों में से क्षेमराज ने गद्दी पर बैठना अस्वीकार कर दिया था, अतः तृतीय कनिष्ठ पुत्र कर्ण (कृष्ण) का राज्याभिषेक करके भीमदेव स्वयं ही गृहत्यागी साधु बन गया था। ये समस्त घटनाएँ कवि श्रीचन्द्र के सम्मुख ही घटित हुई थीं। क्योंकि उक्त कर्ण नरेश के राज्यकाल में श्रीवालपुर नामक स्थान पर श्रीचन्द्र ने अपना दूसरा ग्रन्थ 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' लिखा था। १. विवरण के लिए देखिए-भद्रबाहु चाणक्य चन्द्रगुप्त कथानक, पृ० १११-११२ । २. दे० बृहत्कथाकोष, हरिषेण, सिंघोसीरीज, कथा सं० १४३ । ३. दे० अन्त्यत्रशस्ति, पद्य ३ । ४. दे. वही, पद्य सं०४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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