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________________ हरिभद्रसूरिकृत अष्टक-प्रकरण : एक मूल्यांकन 137 धार्मिक आचरण के लिए सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि हम किसकी आराधना करें ? हमारा जो आराध्य हो वह दैव कैसा हो? इसीलिए आचार्य ने सर्वप्रथम महादेव अष्टक लिखा । फिर उसकी पूजा-विधि बतलाई। पूजा करने वालों की सार्थकता यह है कि वह अपने आराध्य जैसा बनने का प्रयत्न करें। अतः इसके लिये साधु-जीवन की श्रेष्ठता की बात कही गयी और उसकी चर्या में भोजन-विवेक एवं प्रत्याख्यान आदि का निरूपण किया गया।' भक्ति, श्रद्धा, दर्शन आदि के अन्तर्गत समाहित होने वाले विषय प्रथम आठ अष्टकों में वर्णित हैं। इसके बाद के आठ अष्टकों में ज्ञान-मीमांसा का निरूपण है। ज्ञान, वैराग्य, तप आदि के निरूपण के बाद विभिन्न मत-मतान्तरों की चर्चा इसमें की गयी है । एकान्त नित्यवाद, क्षणिकवाद, वाद, विवाद, धर्मवाद आदि के स्वरूप स्पष्ट कर अन्त में अनेकान्तवाद की व्याख्या की गयी है। अनेकान्तवाद ज्ञान-मीमांसा की पराकाष्ठा है । यहाँ तक प्राप्त वैचारिक उदारता चारित्र में उतारनी चाहिये। ___ सत्रह से २४वें अष्टक तक आचार्य हरिभद्रसूरि ने चारित्र धर्म की व्याख्या की है। अहिंसा आदि पांच व्रतों के परिपालन के प्रसंग में मांस-भक्षण के दोष, मद्यपान से हानि, मैथुनसेवन से मर्यादा का अतिक्रमण आदि का विवेचन व्यक्ति के चरित्र को निर्दोष बनाने के लिये है । यह सब ज्ञान सूक्ष्म बुद्धि से आ सकता है। इसमें भावों की शुद्धता का होना आवश्यक है । इस प्रकार के चरित्र से ही जिन शासन का मालिन्य दूर हो सकता है । पच्चीसवें से अन्तिम बत्तीसवें अष्टक में आचार्य ने कुछ सम-सामयिक चर्चाओं को उठाया है । किन कर्मों से पुण्य का अर्जन होता है, किन से पाप का, इसकी भेद रेखा खींची गयी है। पुण्य कर्मों का ही फल है कि तीर्थकर बनने का सुअवसर मनुष्य को मिलता है। इस प्रसंग में आचार्य हरिभद्र ने भगवान महावीर के जीवन के कुछ प्रसंगों को उपस्थित किया है । उनके द्वारा किये गये महादान-सम्बन्धी प्रश्नों का यहाँ समाधान किया गया है। फिर सामायिक के माध्यम से केवल ज्ञान की प्राप्ति, धर्मदेशना एवं मोक्ष के स्वरूप का निरूपण किया गया है । इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने इस छोटी सी रचना में सम्पूर्ण रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को उपस्थित कर इनके समन्वित प्रयत्न के रूप में मोक्ष का विवेचन कर दिया है। ग्रन्थ के अन्त में कवि ने अपने स्वार्थ को कोई बात नहीं कही। वह लोक कल्याण की ही कामना करता है। कवि की भावना है कि "पाप के विरह से अष्ट-प्रकरण को रचकर जो पुण्य अजित किया गया है उसके द्वारा जगत के लोग सुखी हों" अष्टकारव्यं प्रकरणं कृत्वा यत्पुण्यमजितम् । विरहात्तेन पापस्य भवन्तु सुखिनो जनाः ॥ १. एतद्विपर्ययाद् भाव-प्रत्याख्यानं जिनोदितम् । __ सम्यक्चारित्ररूपत्वान् नियमान्मुक्तिसाधनम् ॥ (८.७) १. कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षो, जन्ममृल्वादिवर्जितः । ___ सर्वबाधाविनिर्मुक्त, एकान्तसुखसंगतः ॥ (३२.१) १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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