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चित्र-अद्वैतवाद : समीक्षात्मक विवेचन
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ज्ञानों से भी जाने जाते हैं (अनुभव में आते हैं)। यदि नील आदि पदार्थ को ज्ञान रूप माना जाय तो अन्योन्याश्रय' नामक दोष आता हैं। क्योंकि नील आदि पदार्थों में ज्ञानरूपता (ज्ञान रूप है) सिद्ध होने पर ही नील आदि पदार्थों में अन्य ज्ञान का परिहार करके उसी के ज्ञान से अनुभव में आना सिद्ध हो और अनुभव की सिद्धि होने पर पदार्थों में ज्ञानरूपता की सिद्धि हो ।
अब यदि यह तीसरा विकल्प स्वीकार किया जाय कि भेद से विवेचन नहीं कर सकना अशक्य विवेचन है, तो यह भी असिद्ध है क्योंकि नील आदि पदार्थ बाहर स्थित हैं और उनके ज्ञान अन्तरंग में स्थित है, इसलिए उनमें पृथक्करण को सिद्धि होती है। इस प्रकार विवेच्यमान एवं पृथक्क्रीयमान इन दोनों में विवेचन का अनुभव मानना ठीक नहीं है । क्योंकि इस प्रकार मानने में समस्त पदार्थों के उपाय (अभाव) का निश्चय होने से सकल शून्यता सिद्ध हो जायेगी, जो चित्राद्वैतवादियों को मान्य नहीं है।'
चित्रज्ञान की तरह बाह्य पदार्थ भी एक रूप है-एक बात यह भी है कि अनेक आकारों से व्याप्त अन्तस्तत्व (ज्ञान) अशक्य विवेचन (पृथक्करण न कर सकने) होने से यदि उसे एकत्व का अविरोधो मानते हों तो अवयवी आदि बाहर के तत्वों में एकत्व का अविरोध मानना पड़ेगा क्योंकि दोनों में समानता है। बुद्धि (ज्ञान) के द्वारा उसके स्वरूप का विवेचन करने का कथन तो अन्यत्र भी समान है । चित्रज्ञान में भी नील आदि आकारों का अन्योन्यादेश का परिहार करके स्थित होना समान है। नील आदि आकारों का एक देश मानने पर एक आकार में ही अन्य समस्त आकारों का प्रवेश हो जाने से उनमें विलक्षण (भेद) का अभाव हो जायेगा और ऐसा होने पर चित्रता (नाना आकार) का विरोध हो जायेगा। यह एक नियम है कि जिसका एक देश होता है अर्थात् जो एक ही आधार में रहते है उनके आकार में विलक्षणता नहीं होती है। जैसे एक नीलाकार चित्रा-ज्ञान में नील आदि आकार भी एक देश वाले हैं, इसलिए उनमें भी विलक्षणता नहीं है । उसी प्रकार जहाँ आकारों में अविभिन्नता होती है वहाँ चित्ररूपता नहीं होती है, जैसे एक नीलज्ञान में स्वीकृत (अभिमत) नील आदि आकारों में भी आकारों की अविचित्रता।
__ आकार चित्रमान से सम्बद्ध है या असम्बद्ध-आचार्य प्रभाचन्द्र एवं वादिदेव मूरि चित्राद्वैतवादियों से प्रश्न करते हैं कि नील आदि अनेक आकार चित्रज्ञान से सम्बद्ध होकर चित्रज्ञान के कथन में हेतु होते हैं अथवा असम्बद्ध होकर ही उसमें हेतु (कारण) ? असम्बद्ध होकर तो वे आकार चित्रज्ञान के कथन के कारण नहीं हो सकते हैं, नहीं तो अति प्रसंग हो जायेगा क्योंकि कोई किसी से असम्बद्ध होकर किसी के कथन के हेतु हो जायेगा ।
दो पदार्थों के अस्तित्व की सिद्धि एक दूसरे पर आश्रित होना अन्योन्याश्रय दोष
कहलाता है। २. न्याय कुमुदचन्द्र, ११५ पृ० १२८ । ३. (क) किच्च एते आकाराः चित्रज्ञाने सम्बद्धाः सन्तास्तव्यपदेशहेतवः असम्बदा
वा, न्या० कु० च० पृ० १२८ । (ख) स्यादादरलाकर १।१६, पृ० १७७ ।
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