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________________ 102 उन्हें ज्ञान से अलग करना असम्भव है ऐसा मानने पर, हैतु साध्य के समान असिद्ध है। क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि नील आदि ज्ञान से अभिन्न है, क्योंकि वे उससे अभिन्न है। यहाँ पर साध्य ज्ञान से अभिन्नपना को ही हेतु बनाया गया है।' अतः यह असिद्ध हेतु साध्य को सिद्ध नहीं कर सकता है । इसलिए इससे अशक्य विवेचनत्व सिद्ध नहीं होता है । सहोत्पन्न नील आदि का ज्ञानान्तर को छोड़कर उसी ज्ञान से अनुभव होना अशक्य विवेचनत्व है, ऐसा माना जाय तो अनैकान्तिक है। जो हेतु पक्ष-सपक्ष की तरह विपक्ष में रहता है, वह अनेकान्तिक हेत्वाभास कहलाता है ।' चित्र अद्वैतवादियों द्वारा दिया गया अशक्य विवेचनत्व हेतु इसलिए अनैकान्तिक है कि सम्पूर्ण (जगत्) सुगत के ज्ञान के साथ उत्पन्न हुआ है और ज्ञानान्तर (दूसरे ज्ञान) का परिहार अर्थात्-दूसरे ज्ञान को छोड़ कर के उसी सुगत के ज्ञान से ग्राह्य भी है किन्तु उस सम्पूर्ण संसार के ज्ञान के साथ सुगत ज्ञान का एकत्व नहीं है। अतः जो बुद्धि में प्रतिभासित होता है वह उससे अभिन्न है, यह कथन अनैकान्तिक दोष से दूषित है । दूसरी बात यह है कि यदि सुगत के साथ सम्पूर्ण संसार को एकत्व (एकपना) माना जाय तो सुगत (बुद्ध) संसारीरूप हो जायेगा एवं सम्पूर्ण संसारी प्राणियों में सुगतपना (सुगत्व) हो जायेगा। इस प्रकार सुगत को संसारी रूप और असंसारी रूपसुगत को मानने पर ब्रह्मवाद मानना पड़ेगा। चित्राद्वैतवादी यह नहीं कह सकता है कि सुगत के साथ कोई उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए सुगत के संसारी होने या संसारी प्राणियों का सुगत रूप होने का दोष नहीं आ सकता है, क्योंकि प्रमाणवार्तिक में कहा गया है कि जिनकी महती कृपा होती है वे सुगत के अधीन होते हैं। इस कथन से स्पष्ट है कि सुगत के सत्ताकाल में सर्वत्र प्राणी वर्तमान थे अन्यथा सुगत की कृपा किस पर होती ? इसी प्रकार विनयी शिष्य आदि प्राणियों के अभाव में मोक्षमार्ग का उपदेश देना भी निरर्थक होगा। इसके अलावा एक बात यह भी है कि सुगत का उपदेश सुनकर कोई सुगत की तरह सुगति (निर्वाण) प्राप्त भी नहीं कर सकता, क्योंकि आपके कथनानुसार सुगत के समय अन्य किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और वह सुगत अंतरहित (अत्यान्तिक) है। अब यदि अशक्य विवेचन को ज्ञानान्तर का परिहार करके सुगत-ज्ञान के अनुभव में आना माना जाय तो यह कथन भी असिद्ध हो जायेगा, क्योंकि नीलपीत आदि पदार्थ अन्य १. असत्सतानिश्चयो सिद्धः । अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला, ६।२२ । २. विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः । ३. (क) न्याय कुमुदचन्द्र, ११५ पृ० १२७ । (ख) पृ० क० म०, पृ० ९५ । (ग) प्रमेय कमलमार्तण्ड, ११५ पृ० ९५-९६ । ४. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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