SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चित्र-अद्वैतवाद : समीक्षात्मक विवेचन डा० लालचन्द जैन* बौद्धदर्शन के विज्ञानवादी दार्शनिक सम्प्रदाय के कुछ दार्शनिक चित्र-अद्वैतवाद के पुरस्कर्ता हैं। चित्राद्वैत का अर्थ है कि जिस तरह चित्र अनेक रंगों से युक्त होता है उसी प्रकार ज्ञान भी अनेक आकार वाला होता है । चित्र-अद्वैतवादी ज्ञान-अद्वैतवाद में विश्वास नहीं करते हैं । उनका सिद्धान्त है कि एकमात्र चित्र (आकार) वाले ज्ञान की ही सत्ता विद्यमान है। विभिन्न रंगों से युक्त चितकबरी गाय की तरह ज्ञान में वस्तु के नीलपीत आदि . अनेक आकार होते हैं । विज्ञान अद्वैतवादीबौद्ध ज्ञान में होने वाले नीलादि आकारों को असत्य मानता है और चित्राद्वैतवादी सत्य मानता है, यही दोनों में अन्तर है। इस सिद्धान्त का उल्लेख धर्मकीति, आ. विद्यानन्द वादिराज, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि, यशोविजय आदि ने पूर्वपक्ष के रूप में किया है।' उक्त आचार्यों के ग्रन्थों में उपलब्ध चित्रअद्वैत का स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है । चित्रकार ज्ञान की ही सता है-चित्राद्वैतवादी कहते हैं कि नील, सुख आदि अनेक आकारों से युक्त चित्र-आकार वाला ज्ञान ही एकमात्र तत्त्व है। इसके अलावा अन्य कोई तत्त्व नहीं है। बाह्यपदार्थ नहीं है-चित्राद्वैतवादी बाह्य पदार्थों के अस्तित्व का निराकरण करता है । इस विषय में उसका कहना है कि कोई भी प्रमाण बाह्य पदार्थों के अस्तित्व को सिद्ध नहीं करता है, इसलिए बाह्य पदार्थों की सत्ता गदहे के सोंग की तरह नहीं है । यह सभी दार्शनिक मानते हैं कि प्रमेय के अस्तित्व की सिद्धि प्रमाणों से होती है जिसके अस्तित्व को सिद्ध करने *. प्रभारी निदेशक, प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली । १. (क) धर्मकीर्ति (३३५-६५०) : प्रमाणवातिक, द्वितीय परिच्छेद, पृ० १६३-१७२ कारिका २०८-२३८ । (ख) आ० विद्यानन्द (वि० सं० ९वीं शताब्दी) : १. तत्वार्थ श्लोकवातिक, प्रथम अध्याय, प्रथम आह्निक, पृ० ३५-३६, कारिका १५५-१६४ ।२ अष्ट सहस्री, कारिका, ७, पृ० ७६-७९ । (ग) वादिराज (वि० ११वीं राती) : न्यायविनिश्चय-विवरण, प्रथम प्रस्ताव, पृ० ३८३-३८९, कारिका ९३-९४ । (घ) आ० प्रभाचन्द्र (ई० सन् ९८०-१०६५) : १. न्यायकुमुद चन्द्र ११५, पृ० १२५-१३०, २. प्रमेय कमलमार्तण्ड, १५ पं० ९५-९६ । (ङ) वादिदेवसूरि (वि० १२वीं शती): स्याद्वाद रत्नाकर, ज्ञ।१६ पृ० १७२-१७९ । (च) यशोविजय (३१८वीं शती) : शास्त्रवार्ता समुच्चय टीका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy