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________________ बौद्धन्याय और गौतमीय न्याय में हेत्वाभासों का स्वरूप 93 प्रकरणसम का उदाहरण - शब्द अनित्य है, नित्य धर्म की अनुपलब्धि होने से । जिसमें नित्य धर्म की अनुपलब्धि होती है वह अनित्य होता हैं, जैसे घटादि । उक्त हेतु के विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि शब्द नित्य है, अनित्य धर्म की अनुपलब्धि होने से । ' जिस प्रकार शब्द में नित्य धर्म की अनुपलब्धि है, उसी प्रकार अनित्य धर्म की अनुपलब्धि भी है । इस प्रकार उभयपक्ष विशेष की अनुपलब्धि प्रकरण की चिन्ता प्रवर्तित करती है । अतः यह हेतु दोनों पक्षों को प्रवर्तित करते हुए किसी एक के निर्णय के लिए समर्थ नहीं होता है । प्रकरणसम का ही दूसरा नाम सत्प्रतिपक्ष है । साध्यसम हेत्वाभास साध्यसम साध्य के समान है वह साध्यसम कहलाता है । साध्य असिद्ध होता है और उसकी सिद्धि के लिए हेतु तरह हेतु भी असिद्ध हो तो वह हेतु साध्यसम या असिद्ध जो हेतु साध्य होने से का ही दूसरा नाम असिद्ध है दिया जाता है । यदि साध्य की कहलाता है । । साध्यसम का उदाहरण छाया द्रव्य है, गतिमान् होने से । यहाँ छाया में द्रव्यत्व साध्य है तथा गतिमत्त्व हेतु है । जिस प्रकार छाया में द्रव्यत्व साध्य है उसी प्रकार गतिमत्त्व भी साध्य है । यहाँ विचारणीय यह है कि क्या पुरुष के समान छाया भी गमन करती है । अथवा आवश्यक द्रव्य पुरुष के शरीर आदि के गमन करने पर प्रकाश के असन्निधान से विशिष्ट जो द्रव्य उपलब्ध होता है वही छाया है । न्यायभाष्य में असिद्ध के कोई भेद नहीं बतलाये है-किन्तु न्यायवार्तिक में असिद्ध के तीन भेद बतलाये हैं । प्रज्ञापनीय धर्मसमान, आश्रया-सिद्ध और अन्यथासिद्ध | कालातीत हेत्वाभास काल का उल्लंघन करके जो हेतु कहा जाता है वह कालातीत कहलाता है ।" कालातीत का उदाहरण १. सेयमुभयपक्ष विशेषानुपलब्धिः प्रकरणचिन्तां प्रवर्तयति । सोऽयं हेतुसमौ पक्षी प्रवर्तयन्नन्यतरस्य निर्णयाय न प्रकल्पते । व्युत्पत्तिमात्रं चैतत् प्रकरणसमस्य प्रवृत्तिनिमित्तं तु सत्प्रतिपक्षत्वम् । Jain Education International २. साध्याविशिष्टः साध्यत्वात् साध्यसमः । न्यायसू० ११२२८ ३. साध्यसम असिद्ध इति यावत् । ४. यथैव द्रव्यत्वं छायायाः साध्यं तथैव गतिमत्त्वमपि । साध्यं तावदेतत् किंपुरुषवत् छायापि गच्छति आहोस्वित् आवरकद्रव्ये पुरुषशरीरादौ संसर्पति तेजसोऽनन्निधिविशिष्टं द्रव्यं यदुपलभ्यते तदेव छापेत्युच्यते । न्यायवार्तिक पृ० १७५ ५. कालात्ययापदिष्टः कालातीतः । न्यायसू० ११२२९ न्यायभाष्य पृष्ठ १८२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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