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________________ 92 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 विरुद्ध-जो अपने सिद्धान्त का व्याघात करता है वह विरुद्ध है।' विरुद्ध का उदाहरण-यह महदादिविकार आत्मलाभ से च्युत हो जाता है क्योंकि वह नित्य नहीं है। किन्तु आत्मलाभ से च्युत होने पर भी उसका अस्तित्व बना रहता है, क्योंकि उसका विनाश नहीं होता है। यहाँ 'विकार नित्य नहीं है' इस हेतु का 'आत्मलाभ से च्युत होने पर भी उसका अस्तित्व बना रहता है। इस स्वसिद्धान्त के साथ विरोध है। यदि आत्मलाभ से प्रच्युत विकार का अस्तित्व है तो उसमें नित्यत्व का प्रतिषेध नहीं हो सकता है । तथा जो आत्मलाभ से प्रच्युत हो जाता है वह अनित्य देखा जाता है। अस्तित्व और आत्मलाभ से प्रच्युति ये दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ नहीं रह सकते हैं। अतः यह हेतु जिस सिद्धान्त को लेकर प्रवर्तित होता है उसी का व्याघात करने के कारण विरुद्ध है । न्यायदर्शन में विरुद्ध हेत्वाभास के विषय में प्राचीन और नवीन नैयायिकों में मतभेद है । जो हेतु किसी स्वीकृत सिद्धान्त का व्याघात करता है वह विरुद्ध है, ऐसा भाष्यकार का स्पष्ट मत है। किन्तु नवीन मत के अनुसार विरुद्ध वह है जो साध्य से विपरीत अर्थ की सिद्धि करता है । जैसे शब्द नित्य है, कृतक होने से। यहाँ कृतकत्व हेतु नित्यत्व की सिद्धि न करके अनित्यत्व की सिद्धि करता है । इसीलिए न्यायवार्तिककार ने सूत्र का भाष्योक्त व्याख्यान करके दूसरा व्याख्यान भी किया है कि प्रतिज्ञा और हेतु का जो विरोध है वह विरुद्ध हेत्वाभास है। प्रकरणसम-जिससे प्रकरण की चिन्ता होती है वह निर्णय के लिए कहा गया प्रकरणसम कहलाता है। संशयापन्न और अनिर्णीत पक्ष-प्रतिपक्ष प्रकरण कहलाते हैं। उस प्रकरण की विमर्श से लेकर निर्णय के पहले तक जो समीक्षा की जाती है वह चिन्ता कहलाती है। कोई व्यक्ति किसी वस्तु में नित्यत्व के अविनाभावी नित्य धर्मों को उपलब्ध नहीं करता है तथा अनित्यत्व के अविनाभावी अनित्य धर्मों को भी उपलब्ध नहीं करता है। अब यदि वादी नित्यधर्मानुपलब्धि को अथवा अनित्यधर्मानुपलब्धि को निर्णय के लिए कहता है तो वह प्रकरणसम हेत्वाभास है। क्योंकि यहाँ उभय पक्ष में समानरूप से कहा जा सकता है। जैसे नित्यत्व पक्ष में अनित्यधर्मानुपलब्धि है, वैसे ही अनित्यत्व पक्ष में नित्यधर्मानुपलब्धि भी है। १. स्वसिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः । -न्यायसू० १२।६ । २. सोऽयं विकारः व्यक्तरपति नित्यत्वप्रतिप्रतिषेधात् । अपेतोऽप्यस्ति विनाशप्रति षेधात् । 'न नित्योविकार उपपद्यते' इत्येवं हेतुः 'व्यक्तेरपेतोऽपि विकारोऽस्ति' इत्यनेन स्वसिद्धान्तेन विरुद्धयते । सोऽयं हेतुर्य सिद्धान्तमाश्रित्य प्रवर्तते तमेव व्याहन्तीति । -न्यायभाष्य० पृ० १७९ । ३. प्रतिज्ञाहेत्वोर्वा विरोधविरुद्धोहेत्वाभासः । -न्यायवातिक पु० १७२ । ४. यस्मात् प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः । न्यायसू० १।२१७ । ५. संशयाधिष्ठानो पक्षप्रतिपक्षावुभावनिर्णीतौ प्रकरणम् । तस्य प्रकरणस्य चिन्ता विमर्शात् प्रभृति प्राङ् निर्णयात् यत्समीक्षणम् । -न्यायभाष्य पृ० १८१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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