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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 एक ऊँची पीठिका पर दोनों पैर एक पर एक रखे ध्यानमुद्रा में बैठे है, पीठिका के मध्य में धर्मचक्र' और उसके दोनों तरफ छोटी सिंह की आकृति बनी है, ये महावीर की लांछन चिह्न का द्योतक है । महावीर के प्रतिमा के सिंह आकृति के निकट ध्यान मुद्रा में तीर्थंकरों की दो छोटी मूर्तियाँ भी विद्यमान है, तीर्थंकर मूर्ति में सिंहासन के सूचक सिंह का अंकन सदैव मूर्ति छोरों पर किया गया है । अतः इस चक्र के दोनों तरफ सिंह आकृतियाँ यहाँ सिंहासन के स्थान पर महावीर के लांछन का सूचक है । प्रतिमा में महावीर के साथ प्रभामण्डल पाववर्ती चामरधर सेवकों एवं उड्डीयमान मालाधारों का अंकन स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है । महावीर तोथंकर का केश गुच्छक के रूप में मुख-मुद्रा पर योगी ओजस्विता मन्दस्मित और शान्ति का भाव व्यक्त है। वाराणसी के राजघाट से ७ वीं शती ई० की नेमिनाथ की भी प्रतिमा प्राप्त हुई थी, जो कला-भवन संग्रहालय में सुरक्षित है। मूर्ति ध्यान मुद्रा में सिंहासन पर आसीन लांछन शंख जो स्पष्ट नहीं है किन्तु मूर्ति के नीचे भाग में यक्षी अम्बिका का अंकन के पहचान का आधार नेमिनाथ सम्भव हैं । इनके साथ धर्मचक्र सिंहासन चामरधारी पद्मालंकृत प्रभामण्डल मालाधर का अंकन स्पष्ट होता है। इस तरह से इस काल में जैन कला का विकास हुआ होगा। गुप्तकाल की भाँति मध्यकाल में भी जैन कला का पूर्णतः विकास माना जाता है। सारनाथ से इस काल की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिसमें अधिकांश खण्डित है फिर भी इनके शारीरिक बनावट के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है। सारनाथ से ८ वी से १२ वीं शताब्दी ई० में इस धर्म की मूर्तियों का उल्लेख है तथा प्राप्त भी हुई है, इनके खण्डित होने का कारण कोई आकस्मिक घटना घटित होने का अनुमान लगता है।। ओटले महाशय को सभी उत्खनन से प्राप्त हुई थी, मूर्तियों में कुछ के खण्डित छत्र भी मिले हैं । गाहडवाल युग में श्वेताम्बर और दिगम्बर तीर्थंकरों का प्रभाव मूर्तियों के प्रकाश में आने से होता है। वाराणसी के भेलूपुर क्षेत्र में कुछ तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ हैं जो मन्दिरों में स्थापित है। लखनऊ संग्रहालय में एक जैन प्रतिमा है जो काशी के राजघाट से प्राप्त हुई थी यह लगभग ७ वीं शताब्दी ई० की है जो अजितनाथ की मूर्ति निर्वस्त्र और कायोत्सर्ग मुद्रा में हाथ को लटकाए खड़े हैं, तीर्थंकर महावीर की भाँति इनका भी लांछन गज है। प्रभामण्डल पर प्रतिहार्य का अभाव है। सारनाथ से ९ वीं-१० शती ई० की जैन तीर्थंकर विमलनाथ की प्रतिमा जो स्थानीय संग्रहालय में सुरक्षित है, इसमें विमलनाथ का सिर खण्डित है, ये जैन धर्म के तेरहवें तीर्थकर माने गये हैं इनका लांछन चिह्न वाराह बना है। विमलनाथ का वर्ण सुनहरा १. शर्मा, बी० एन०, जैन प्रतिमाएँ, पृष्ठ ९३ । २. भारत कला भवन, संख्या २१२ । ३. आ० स० रि०, १९०४-३, पृष्ठ १०० । ४. लखनउ राज्य संग्रहालय, सं० ४१-१९९ । ५. सारनाथ संग्रहालय सं ३२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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