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[ fii į करने वाले पण्डित जी अपने अन्तेवासियों को एक ओर व्याख्यान-प्रवचन करने का प्रशिक्षण देकर और जैन संदेश में लेख प्रकाशित कर लेखन कला में प्रवीण कर सदैव उनके विकास में प्रयत्नशील रहते थे और दूसरी ओर 'बात का पक्का लंगोटी का सच्चा' का उपदेश देकर सद् चरित्री बनाने का अथक प्रयास करते रहे । अपने शिष्यों के पी-एच० डी० होने या पदासीन होने पर, गुणग्राही पण्डित जी विद्यालय में समस्त छात्रों और अध्यापकों के साथ उनका सम्मान-स्वागत समारोह अवश्य आयोजित किया करते थे।
इस प्रकार आदर्श शिक्षक, शिष्यों के पितातुल्य सच्चे अभिभावक, निर्भीक लेखक, ओजस्वीवक्ता, स्वाभिमानी व्यक्तित्व परमपूज्य पण्डित जी के प्रति श्रद्धाञ्जलि समर्पित करता हूँ। जिन मनीषी विद्वान लेखकों ने अपने गवेषणात्मक लेख भेजकर इस अंक के कलेवर की संरचना में सहायता की है, उनका मैं आभारी हूँ। संस्थान के प्रकाशन-शास्त्री श्री प्रमोद कुमार चौधरी, एम० ए० ने इस अंक के प्रकाशन में सक्रिय सहयोग दिया, एतदार्थ उन्हें धन्यवाद !
तारा प्रिंटिंग प्रेस, वाराणसी के संचालक श्री रविप्रकाश पंड्या ने इस अंक को सुन्दर और कलात्मक रूप से अल्प समय में ही मुद्रित कर सहयोग किया । अतः उनका आभारी हूँ। वैशाली
लालचन्द जैन मार्च ३०, १९८८
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