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दक्षिण में जैन धर्म, नमस्कार महामन्त्र, जैन सिद्धान्त आदि ऐसे मौलिक ग्रन्थ हैं जिनमें विशद् पांडित्य दृष्टिगोचर होता है। इसके अलावा गवेषणात्मक सम्पादन और प्राकृत तथा संस्कृत भाषा में निबद्ध जटिल ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद के रूप में भी पण्डित जी की विद्वत्तापूर्ण बृद्धि का चमत्कार परिलक्षित होता है। न्याय-कुमुदचन्द्र की प्रस्तावना, सोमदेव उपासकाध्ययन, द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र, तत्त्वार्थसूत्र, अनागार-धर्मामृत, सागार-धर्मामृत, गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, भगवती आराधना, सत्प्ररूपणा सूत्र, कुन्दकुन्दप्राभृत संग्रह, भगवान महावीर का जीवन चरित, समणसुत, स्वामी कार्तिकेय अनुप्रेक्षा, कल्याण मन्दिर, जय-धवला आदि पण्डित जी द्वारा सम्पादित एवं अनुवादित उच्चकोटि के ग्रन्थ हैं, जिनसे आपके गहन अध्ययन एवं शोध-प्रवृत्ति सिद्ध होती है। उनकी साहित्य-सृजना में उनकी धर्मपत्नी बसन्तीबाई की अर्द्धविक्षिप्त स्थिति कभी बाधक नहीं हुई।
निष्पक्ष पत्रकार के रूप में भी उनकी कीर्ति-ध्वजा आज भी फहरा रही है। सन् १९३९ से 'जैन सन्देश' के सम्पादक के रूप में पण्डित जी ने विभिन्न विषयों से सम्बन्धित सम्पादकीय लिखने में निर्भीकतापूर्वक अपनी लेखनी चलाई। अपने विरोधियों के लेखों और विचारों को जैन सन्देश में प्रकाशित कर अपनी उदारता और तटस्थ पत्रकारिता का परिचय दिया, लेकिन आगम विरुद्ध शिथलाचार को उन्होंने कभी भी प्रश्रय नहीं दिया। अपनी भावनाओं के विरुद्ध लिखना उन्हें पसन्द नहीं था। इसके अलावा मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला एवं जीवराज ग्रन्थमाला के प्रधान सम्पादक के रूप में भी आपने जिनवाणी की सेवा की। 'सादा जीवन उच्च विचार' के धनी, सिद्धान्तरत्न और सिद्धान्ताचार्य की उपाधि से विभूषित पण्डित जी का देश के विभिन्न नगरों में जैन समाज ने अभिनन्दन करके अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की। अपने साधनों में स्वभाव से सन्तुष्ट, पण्डित जी धार्मिक अवसरों पर प्रवचन आदि करने पर समाज द्वारा दी गई धनराशि को स्याद्वाद महाविद्यालय ध्र वफण्ड में जमा कर देते थे। कभी उन्होंने कुछ अपने लिए नहीं लिया। यही कारण है कुछ विद्वानों ने स्याद्वाद महाविद्यालय को उनका स्वपोषित बेटा कहा है।
४० वर्ष की अवस्था में १०८ गणेश प्रसाद वर्णी जी के चरणों में ब्रह्मचर्य व्रत लेकर जीवनपर्यन्त अखण्ड रूप उसका पालन करनेवाले निरभिमानी और स्वाभिमानी, विनम्रता की मूति, विद्यावारिधि पण्डित जी अखिल भारतीय विद्वत् परिषद् के एकाधिकबार अध्यक्ष बनकर विद्वानों के सम्मानपूर्वक जीवन निर्वाह के लिए सतत् संघर्षशील रहे । गौतम गणधर के समान अपरिग्रही पण्डित जी ने प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली की अधिष्ठात्री परिषद और प्रकाशन समिति के सदस्य के रूप में संस्थान को गतिशील बनाया और उनके विकास के लिए अपने अमूल्य सुझाव दिये । सन् १९८५ में वैशाली महोत्सव के अवसर पर रात में मंच पर से आपके सारगर्भित भाषण को सुनकर उमड़ती हुई लाखों की जनसंख्या मन्त्रमुग्ध हो गई।
पण्डितजी के सुकोमल हृदय में अपने शिष्यों के प्रति प्रगाढ़ स्नेह और उन्हें उन्नति के शिखर पर पहुँचने की कामना से परिपूर्ण रहता था। 'नारिकेला समाकाश' को परितार्थ
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