SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 22 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 साहित्य के अनुसार यह वैशाली का एक प्रधान उपनगर था।' कुछ विद्वानों ने इसे मगध जनपद का एक ग्राम माना है, जो उचित प्रतीत नहीं होता। जैन-परम्परा के अनुसार वर्धमान ने प्रवृज्या ग्रहण करने के बाद प्रथम-पारणा यहीं पर ली थी। उक्त कोल्हुआ ग्राम में एक सुन्दर पालिश वाला सिंहशीर्षयुक्त प्राचीन स्तम्भ मिला है । कुछ इतिहासकारों ने उसे "अशोकस्तम्भ' बतलाया है, किन्तु अनेक विद्वान् उनके इस विचार से सहमत नहीं । इनका तर्क है कि बौद्ध परम्परा में सिंह का कोई स्थान नहीं । अल्वर्ट म्यूजियम लन्दन के प्राच्यविद्या विभागाध्यक्ष प्रो० जॉन इर्यिन के अनुसार भारत में उपलब्ध प्राचीन स्तम्भों में केवल दो ही स्तम्भ अशोक द्वारा उनके निर्मित कराए जाने के स्पष्ट उल्लेख हैं और इन दोनों स्तम्भों की विशेषता है कि उन पर सिंहमूत्ति उत्कीर्ण नहीं है। ये दोनों स्तम्भ रुम्मनदेइ तथा निग्लीव (भारत-नेपाल सीमा पर) में स्थित हैं। सिंह मूत्ति वाले स्तम्भों को इविन ने अशोक के पूर्व के माने हैं तथा बताया है कि अशोक ने उन्हीं पर अपने अभिलेखों को उत्कीर्ण कराया है । स्वयं अशोक ने ही अपने सप्तम स्तम्भलेख में लिखाया है कि"इयं धमलिवि अत अथि सिलाथंभानि वा सिलाफलकानि वा तत कटविया एन यस चिलंथितिकेसिया" अर्थात् 'जहाँ-जहाँ पत्थर के स्तम्भ या पत्थर की शिलाएँ हों, वहाँ-वहाँ यह धर्मलिपि लिखवाई जाय जिससे कि वह चिरस्थायी रहे।' जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि बौद्ध परम्परा में सिंह का महत्त्व नहीं है जबकि जैन-परम्परा में महावीर का प्रतीक चिह्न हाने के कारण उसका विशेष महत्व है । इसी प्रकार बौद्ध परम्परा में स्तम्भ का कोई महत्व नहीं, जबकि तीर्थंकर की समवशरण-रचना में प्रमख द्वार पर एक स्तम्भ अनिवार्य रूप से रहता है, जिसे "मानस्तम्भ' की संज्ञा प्राप्त है । बहत सम्भव है कि कोल्हुआ ग्राम का वह स्तम्भ महावीर के नाना चेटक ने प्रवृज्या ग्रहण करने की स्मृति में अथवा उनके द्वारा प्रवृज्या के बाद प्रथम पारणा कोल्लाग में लिए जाने के उपलक्ष्य में निर्मित कराया हो और उसकी देखा-देखो में कैवल्य-प्राप्ति के बाद उनके बिहार स्थलों या उनकी विविध कल्याणक तिथियों के उपलक्ष्य मे ये सिंहशीषं वाले स्तम्भ जहाँ-तहाँ बनवाए गए हों, जिन पर बाद में अशोक ने अपनी धर्मलिपियाँ उत्कीर्ण करा दी हों। इस विषय पर गम्भीर शोध-खोज की आवश्यकता है। पाटालपुत्र वर्तमान में यह बिहार की राजधानी है। कालक्रम से इसका नाम संक्षिप्त होते-होते पटना रह गया था किन्तु पुनः इसका नाम परिवत्तित कर अब पाटलिपुत्र कर दिया गया है। १. वैशाली-अभिनन्दन-ग्रन्थ । २. दे० हरिभद्र के प्रा० क० सा० आ० परि० (ने० च० शा०) पृ० ३५४ । ३. दे० श्रमण साहित्य (डॉ० राजाराम जैन) पृ० ५१-५२ । ४. दे० अ० भा० प्रा० वि० सम्मेलन (२८ वें अधिवेशन के प्राकृत एवं जैन विद्या विभाग के अध्यक्ष का भाषण, कर्नाटक वि० वि० १९७६) पृ. ५८ । ५. दे० अशोक का सातवाँ स्तम्भलेख । ६. दे० समरा० चतुर्थ भव, पृ० ३३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy