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________________ महाकवि विबुध श्रीधर एवं उनकी अप्रकाशित रचना "पासणाहचरिउ" १ . हैं । कवि की दृष्टि में सन्ध्या किसी के जीवन में हर्ष उत्पन्न करती है, तो किसी के जीवन में विषाद । वस्तुतः वह हर्ष एवं विषाद का विचित्र संगमकाल है । जहाँ कामीजनों, चोरों, उल्लुओं एवं राक्षसों के लिए वह श्रेष्ठ वरदान है, वहीं पर नलिनी-दल के लिए घोर-विषाद का काल । वह उसी प्रकार मुरझा जाता है, जिस प्रकार इष्टजन के वियोग में बन्धु-बान्धवगण । सूर्य के डूबते ही उसकी समस्त किरणें अस्ताचल में तिरोहित हो गयी हैं । इस प्रसंग में कवि उत्प्रेक्षा करते हुए कहता है कि विपत्तिकाल में अपने कर्मों को छोड़कर और कौन किसका साथ दे सकता है ? सूर्य के अस्त होते ही अस्ताचल पर लालिमा छा गयी है, वह ऐसी प्रतीत होती है, मानों अन्धकार के गुफा-ललाट पर किसी ने सिन्दूर का तिलक ही जड़ दिया हो । यथा अत्थहरि-सिहरिवि रत्तु पवटुलु तम-विलउ । संझए अवर-दिसि वयंसियहो सिंदूरे उ-तिलउ ॥ पास० ३।१७।१३-१७ । अन्धकार में गुफा-ललाट पर सिन्दूर के तिलक की कवि-कल्पना सचमुच ही अद्भुत एवं नवीन है। कवि का रात्रि-वर्णन-प्रसंग भी कम चमत्कारपूर्ण नहीं । वह कहता है कि समस्त संसार घोर अन्धकार की गहराई में डूबने लगा है, इस कारण विलासिनियों के कपोल रक्ताभ हो उठे हैं तथा उनके नीवी-बन्ध शिथिल होने लगे हैं । कवि कहता है छुडु नीवी गय-संझ विलासिणी अरुणत्तण गुण-घुसिण विलासिणी ।। ३।१३।३ बाल-लोला वर्णन कवि श्रीधर ने शिशु पार्श्व की लीलाओं का भी बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। उनकी बाल एवं किशोर लीलाएँ, उनके असाधारण-सौन्दर्य एवं अंग-प्रत्यंग की भाव-भंगिमाओं के चित्रणों में कवि की कविता मानों सरसता का स्रोत बनकर उमड़ पड़ी है । कवि कहता है कि शिशु पार्श्व कभी तो माता के अमृतमय दुग्ध का पान करते, कभी अंगूठा चूसते, कभी मणिजटित चमचमाती गेंद खेलते, तो कभी तुतली बोली में कुछ बोलने का प्रयास करते । कभी तो वे स्वयं रेंग-रेंगकर चलते और कभी परिवार के लोगों की अंगुली पकड़कर चलते । जब वे माता-पिता को देखते तो अपने को छिपाने के लिए वे हथेलियों से अपनी ही आँखें टैंक लेते । चन्द्रमा को देखकर वे हँस देते थे। उनका जटाजूटधारी शरीर निरन्तर धूलि-धूसरित रहता था। खेलते समय उनकी करधनो की शब्दायमान किकिणियाँ सभी को मोहती रहती थीं। कवि के इस बाल-लीला-वर्णन ने हिन्दी के भक्तकवि सरदास को सम्भवतः सर्वाधिक प्रभावित किया है। कृष्ण की बाललीलाओं के वर्णनों की सदृशता तो दृष्टिगोचर होती ही है, कहीं-कहीं अर्धालियों में भी यत्किञ्चित् हेर-फेर के साथ उनका उपयोग कर लिया गया प्रतीत होता है । यथा--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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