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________________ ( २६ ) विविध विषयों पर बोलने आदि की कलायें सिखाईं जाती थी । इसी का परिणाम है कि उस समय के निकले हुये पंडित जी के हजारों शिष्य आज देश के कोने-कोने में अच्छे स्थानों और पदों पर सेवारत हैं । । पूज्य पंडित जी का स्नेह मुझे प्रारंभ से ही प्राप्त रहा है मुझे पर्युषण पर्व पर मुरादाबाद लिवा ले गये, मुझे इस अवसर पर समझने का अवसर मिला । पू० पं० जी के महान् प्रवचनों को की शैली को देखता तथा श्रोताओं की उमड़ती भीड़ देखता तो सन् १९७१ में पं० जी उनसे बहुत कुछ सीखने सुनता और शास्त्र प्रवचन दंग रह जाता था । सन् १९७९ को जब मेरी नियुक्ति सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालम के र्जनदर्शन विभाग में प्राध्यापक के रूप में हुई तो सर्वाधिक खुशी पू० पं० जी को हुई । नियुक्ति के बाद पं० जी एवं पं० फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री से काफी समय कुछ प्रमुख सिद्धान्त एवं दार्शनिक ग्रन्थों का अध्ययन किया तथा अनेक विषयों पर निरन्तर विचार-विमर्श चलता रहता था । सायंकाल पं० जी मंदिर में सामायिक के बाद दुर्गाकुण्ड के पास स्थित आनन्द पार्क में डेढ़-दो घंटे नित्य बैठा करते। यहीं पर पं० दरबारी लाल जी कोठिया एवं प्रो० उदयचन्द जी जैन पं० जी के साथ बैठते । मैं भी प्रायः रोज इस विद्वन् मंडली के सानिध्य बैठने का सौभाग्य प्राप्त करता और विविध विषय की चर्चा में भाग लेता । जब मैं पं० जी का छात्र था, तबके और इस समय के मेरे प्रति पू० पं० जी के व्यवहार में मैंने काफी परिवर्तन देखा जहाँ पहले कड़े अनुशासन के कारण हम लोग पं० जी के सामने जाने से डरते वहीं अब पूज्य ० जी हम लोगों के संकोच के बावजूद समानता का व्यवहार करते और जब भी पं० जी के विद्यालय वाली कक्ष में जाते तो पं० जी प्रसन्नमुख अपने बगल वाली कुर्सी पर बैठने को कहते । इतना ही नहीं जब कभी पं० जी को किसी पुस्तक की जरूरत पड़ती या कोई कार्य होता तो वे निःसंकोच मेरे घर पधारने की कृपा करते तो पं० जी की इस सरलता को देखकर हम लोग अपने को कृतार्थ अनुभव करते । पर्युषण पर प्रवचनार्थ निमंत्रण आने पर भी मैं संकोचवश नहीं जाता था परन्तु पूज्य पंण्डित जी तथा पू० पं० फूलचन्द जी शास्त्री तथा पूज्य पं० जगमोहन लाल जी ने जब प्रेरणा देते हुये मुझसे कहा कि ऐसे अवसरों पर तुम्हें समाज के बीच अवश्य जाना चाहिये क्योंकि इससे ज्ञानवृद्धि होती है तथा समाज सेवा का अवसर मिलता है । साथ ही पं जी ने हँसते हुये कहा कि हम लोग तो 'पके पान के पत्ते' हैं अब ही आगे आकर हमलोगों की परम्परा और कार्यों को सम्हालना है। किया कि पूज्य वर्णी जी की प्रेरणा से जैन धर्म-दर्शन- संस्कृति एवं एवं विकास हेतु जैन समाज द्वारा स्थापित इन जैन संस्कृत विद्यालयों का हमारे ऊपर महान् उपकार है । यदि ये विद्यालय और एसे गुरुवर्य न होते तो हमलोग भी अपने-अपने तो आप लोगों को तब से मैंने निश्चय सिद्धान्तों की रक्षार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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