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________________ हम य ही मर मिटेंगे तुमको खबर न होगी पद्मचन्द्र जी शास्त्री उक्त पंक्ति एक गाने की है जो अपने में बड़ा मायना और दर्द रखती है हर, वह प्राणी जो कुछ जानता समझता है इसे जीवन में गुन-गुनाता रहता है और आखिर में चला जाता है। शायद हमारे महामना पूज्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री भी जीवन भर इसे गुन-गुनाते रहे--इसी भाव को लिखते रहे और जाते-जाते पंक्ति को यहीं छोड़ गये लोगों को गाने, समझने और मनन करने के लिए। मुझे याद है जब मैं स्याद्वाद विद्यालय से निकाला नहीं गया था-वहां का व्यवस्थापक था। पंडित जी प्रायः शिक्षाप्रद फिल्मों के देखने के शौकीन थे। उनको और साथ में स्व० पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य को प्रायः किसी शाम को पिक्चर हाल में आसानी से देखा जा सकता था। मुझे ऐसे अवसर तब सहम कर बरबस यूं ही रह जाना पड़ता था जब मैं किसी छात्र को पिक्चर देखने के दण्ड स्वरूप कुछ डांट-फटकार सुनाना चाहता था, और वह बरबस कह उठता था-पंडितजी भी तो देख रहे थे। एक दिन हिम्मत जुटाकर, विद्यालय की छत पर घूमते हुए, बातों-बातों में मैं पंडित जी से कह ही बैठा कि कभी-कभी लड़के ऐसा जवाब देकर कि 'पंडित जी भी तो देख रहे थे' मुझे मौन रहने को मजबूर कर देते हैं। पंडित जी को मुझसे स्नेह तो था ही, उन्होंने मुझे समझाया-पद्मचन्द्र जी ! लड़कों को तो डांटना ही चाहिए, वे नासमझ होते हैं फिल्मों की अच्छाइयों की उन्हें कहाँ बोध होता है ? वे बुराईयों को ही अधिक ग्रहण करते हैं। उन्होंने आगे कहा--आप जानते हैं कि दिन भर साहित्यिक काम करता हूँ, तत्व-चिन्तन करता हूँ और मुझे पिक्चरों में भी तत्व की ही पकड़ रहती है। उदाहरणार्थ उन्होंने अपने मधुर कंठ से एक पंक्ति सुनाई-'हम यूं ही मर मिटेंगे, तुमको खबर न होगी' । वे बोले-आप जानते हैं कि यह संसारावस्था का वह सार है जिसे खोजतेखोजते हमें यूं ही बरसों बीत गये और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इस रहस्य को खोजतेखोजते चल बसे । आदि । आज मैं सोचता हूँ कि वास्तव में पंडित जी बड़े दूरदर्शी थे और उनका वह दूरदर्शन तब सही रूप में अनुभव आया, जब उनकी रुग्णावस्था में कोठियाजी जैसे कई मनीषियों को बरबस समाज का ध्यान उनकी ओर खींचना पड़ा कि वह पंडितजी की * संम्पादक, 'अनेकान्त', वीर सेवा मंदिर, नई दिल्ली-२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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