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________________ 186 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 विप्रलम्भ शृंगार का परिपाक हुआ है, यों प्रथम सर्ग में लक्ष्मण तथा उर्मिला के विनोदपूर्ण वार्तालाप में शृंगार के संयोग पक्ष को भी सुन्दर अभिव्यक्ति मिली है । महाकाव्य के अन्तर्गत विविध वस्तु-वर्णन को भी स्थान दिया गया है । 'साकेत' में प्रकृति तथा सामाजिक जीवन का विशद् वर्णन हुआ है । प्रथम सर्ग में ही उषा का सुन्दर वर्णन है और फिर नवम सर्ग में आकर तो कवि उर्मिला- विरह-वर्णन के साथ प्रकृति-चित्रण पर ही लग गया है । सामाजिक और राजनीतिक जीवन के चित्र भी प्रचुर मात्रा में 'साकेत' में मिल जायेंगे । राजा - प्रजा, पिता-पुत्र, पुत्र माता, पुत्र विमाता, सास- वधु, देवर-भाभी, भाईभाई, पति-पत्नि, स्वामी - सेवक, गुरु-शिष्य आदि के सम्बन्धों तथा विवाह, स्वयंवर, संयोगवियोग, युद्ध इत्यादि का यथावसर निरूपण हुआ है । महाकाव्य का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष, इन चार पदार्थों को माना जाता है । 'साकेत' में इन चारों पदार्थों की तो सिद्धि हुई ही है । साथ ही गुप्तजी ने उर्मिला द्वारा समष्टि के निर्मित व्यष्टि का त्याग दिखाकर राष्ट्र के समक्ष त्याग-भावना को भी रखा है । पूर्णत: खरा उतरता है । अब केवल एक तत्त्व और रह जाता है और वह है भाषा-शैली | इस तत्व पर अगले शीर्षक में स्वतन्त्र रूप से विचार किया जायेगा । प्रस्तुत तत्त्वों की दृष्टि से तो 'साकेत' महाकाव्य की कसौटी पर 'साकेत' की भाषा-शैली महाकाव्य की शैली अत्यन्त शक्तिमती तथा विस्तारगर्भा होनी चाहिए, जिससे वह जीवन के विविध पक्षों के अंकन में समर्थ हो सके । वस्तुतः 'साकेत' में शैली की उस असाधारणता का अभाव है जिसकी अपेक्षा हम महाकाव्य से करते हैं। इसमें संदेह नहीं कि साकेत के पंचम एकादश तथा द्वादश सर्गों की शैली में महाकाव्योचित स्थिरता नहीं है । इस अस्थिरता का कारण कदाचित् यह रहा है कि कवि की मूल दृष्टि इतिवृत्त वर्णन पर न होकर कुछ भावपूर्ण स्थलों को उभारने पर रही है। जो भी हो, इतना तो मानना ही पड़ेगा कि 'साकेत' का शैली - पक्ष दुर्बल है । 'साकेत' की भाषा खड़ी बोली है । इस खड़ी बोली पर संस्कृत का प्रभाव अधिक है । कुछ प्रांतीय शब्दों का भी प्रयोग किया गया है; जैसे----ध --धाड़, धड़ाम, डिडकार आदि । व्याकरण की दृष्टि से तो 'साकेत' की भाषा में कहीं कोई त्रुटि मिलेगी ही नहीं । कवि को भाषा पर भी अधिकार पूरा है; किन्तु फिर भी पॉलिश की कमी और तुक के आग्रह के कारण भाषा में पर्याप्त शैथिल्य आ गया है । डॉ० नगेन्द्र के शब्दों में, "लचर भाषा के उदाहरण 'साकेत' के बराबर अन्यत्र मिलना कठिन है ।" डॉ उमाकान्त गोयल ने भी महाकाव्यकार गुप्तजी की भाषा-शैली सम्बन्धी दुर्बलता को परखा । उनका कथन हैमैथिलीशरण गुप्त के महाकाव्यों महानन्द का सा गम्भीर नाद और अव्याहत प्रवाह नहीं है । यद्यपि भाषा काफी प्रौढ़ एवं परिमार्जित तथा शैली नानावर्णनक्षमा है, फिर भी उसमें न तो 'पैराडाइज लॉस्ट' की गरिमा हैन 'मेघनाद वध' का दुर्धर प्रवाह, न 'कामायनी' का ऐश्वर्य है और न ही Jain Education International For Private & Personal Use Only 66.6 www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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