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________________ 174 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 पर खड़े हो गये। यशोधरा ने अपने अधिकार और अपमान की शालीन लड़ाई आँगन में ही लड़ी। उर्मिला ने अपने मोहाविष्ट मन को वियोग की पंचाग्नि में तपाकर सुवर्ण कर लिया। एक आलोचक की धारणा है कि साकेत का कथाप्रवाह नवम और दशम सर्ग में ठमक कर रह गया। ध्यान से देखने पर यह कथन निर्मम लगता है। साकेत का रंगमंव उर्मिला का ही है। यह रंगमंच माण्डवी, श्रुतिकोति, भरत और शत्रुघ्न का भी हो सकता था पर इसके लिए दोषी तो रामायणकार ही माने जायेंगे जिन्होंने अपने चरितनायक के साथ चलतेचलते अरण्य और लंका-यात्रा की ओर उनके ही पराक्रम का आलेख प्रस्तुत किया। चरित्र की उदातमा तो साकेत में भी थी और इसे गुप्तजी ने पहचाना। रामायण का ही यह संस्कार आज भी हमारे लोकगीतों में बोलता है जिसमें जंगल में भीगते हुए राम की कल्पना में कौशल्या बिसूरती रहती हैं। नगर को अगोरने वालों के प्रति कहीं कोई सहानुभूति नहीं हो पाती। सहानुभूति दुःख और पीड़ा भोगनेवालों के हाथ लगती है। आज भी राम को सारी सहानुभूति मिल जाती है, साकेतवासी पात्रों को नहीं। क्योंकि न्याय का पक्ष राम के साथ है । उर्मिला के साथ ऐसी कोई बात नहीं। साकेत महाकाव्य की जवनिका लक्ष्मण के कक्ष में उठती है और वहाँ नवदम्पत्ति का शारीरिक मोह इतना उत्कट है कि सहज ही शंका होने लगती है कि इस प्रबल मोह का परिणाम विपरीत ही होगा और, होता भी वही है। लोकप्रसिद्ध कथा का आधार छोड़ भी दिया जाय तो कथा की अगले सर्गों में यही स्वाभाविक माँग भी हो जाती है। गौतम ने यशोधरा को छोड़ा तो यशोधरा ने अपने को गौतम की ही तरह तपाकर परिवार धर्म का निर्वाह कर अपने को सुवर्ण बना लिया। लक्ष्मण उमिला की आज्ञा से वन गये और यहाँ भी उर्मिला साकेत की परिधि में पत्नीधर्म का पालन करती अपनी देहधर्मिता का विसर्जन करती है। दोनों ही परिवार धर्म का निर्वाह करती हैं । प्रसंगवश यहाँ तुलसीदास की कथा का स्मरण करना अनुचित नहीं होगा कि तुलसी भी देहधर्म से पीड़ित थे और रत्ना ने उन्हें मोहमुक्त किया। ये सारी कथायें भारतीय प्रेम पद्धति का विमल आख्यान हैं । शरीर से ऊपर उठकर प्रेम की साधना । कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् में इसी सत्य को उद्घाटित किया । गुप्तजी ने इसी को बारम्बार दुहराया है। इस नाते नवम सर्ग अयोध्या के महल में उर्मिला की पार्वती-तपस्या है। इसीलिए आवश्यक था कि इस तपन का तिल-तिल आख्यान वर्णित हो। पुनः रामकथा के सारे पात्र चरित्र नायक के चरित्र का उत्कर्ष करने के लिए नींव को ईंट बन गये हैं। उनकी अपनी महानतायें प्रकट नहीं हो पाती। साकेत में गुप्तजी ने सभी पात्रों को जीने का पर्याप्त अवसर दिया है। केवल एक प्रसंग 'कैकेयी के परिताप' का उल्लेख पर्याप्त होगा। रामचरित मानस में गोस्वामी ने राम के द्वारा ही कैकेयी की ग्लानि धाने के निमित्त पहल कारवाई है। गुप्तजी ने कैकेयी को वाणी देकर परिवार को शीर्ष पर पहँचा दिया है। लोकसिद्ध कथा का गहरा पगा संस्कार हमें मुक्त रूप से ऐसे नवाख्यानों को मुक्त रूप में परखने का अवकाश नहीं देता और नाते गुप्तजी का यह अदम्य साहस ही है जिसने ऐसा दुस्साहस किया और सफल भी हुए। तुलसी ने एक ही राम का आधार लेकर अनेक काव्यरूपों में उन्हें आख्यायित किया। गुप्तजी के समक्ष समस्त भारतीय इतिहास था। उन्होंने भारत की आत्मा को परखा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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