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________________ बीसवीं सदी का तुलसी-मैथिलीशरण गुप्त __ डा० सुरेन्द्र मोहन प्रसाद* अगर कोई देश अपनी उपलब्धियों पर गर्व कर सकता है तो वह है उसकी साहित्यिक और सांस्कृतिक उपलब्धि । देशों का इतिहास राजाओं एवं राजनीतिक चक्रों के इतिवृत्ति का आलेख होता है। अगली पीढ़ी उससे केवल राजनीतिक यात्रा का लाभ और हानियों का लेखाजोखा प्राप्त कर सकती है। परन्तु इससे उस देश की पहचान नहीं बनती, उसके राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण नहीं हो पाता । राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण उस देश का साहित्यिक इतिहास निर्मित करता है। भारतवर्ष के पास वेद, पुराण, रामायण और महाभारत भले ही हों, परन्तु उसकी अस्थि-मज्जा में दो ही ग्रन्थों का संस्कार है। एक है श्रीमद्भगवद्गीता और दूसरा रामचरितमानस । प्रथम जीवन का संविधान है, दूसरा उसका प्रयोग । हमारे कवियों ने इन्हीं ग्रन्थों की प्रेरणा से अपने युगानुरूप साहित्य का निर्माण कर देश को जीवन्त रखा है। इसी परम्परा की एक सशक्त कड़ी है—राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त । उन्होंने परतन्त्र भारत की गुलाम चेतना में स्वतन्त्रता के अंखुए खिलाये । "हम कौन थे क्या हो गए" का नारा लगाकर अन्धी गलियों में भटकती भारतीय जीवनधारा को आवाज दे चौराहे पर रोक एक पल सोचने को विवश कर दिया कि उनकी क्या नियति होनी चाहिए। भारतेन्दु ने जहाँ उनके सुषुप्त मस्तिष्क में कुलबुली भर दी थी, वहाँ गुप्तजी ने उनके पैरों में चौकड़ी भर दी। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन गुप्तजी के बिना अधुरा है। जो काम गाँधी के भाषणों ने किया, वह काम गुप्तजी की लेखनी ने। गाँधी का 'रघुपति राघव राजा राम' तो कबीर का राम था, जो संग्राम की लाठी भर था। गुप्तजी का काव्य संग्रामियों की आत्मा का संकल्प बना। उनका राम उनकी हतचेतना का सम्बल । धर्म का आधार लेकर जो काव्य निर्मित होता है, वह सीधा मर्म पर प्रहार करता है, उसमें जातीय संस्कार की स्वीकृति होती है। गुप्तजी ने मर्म को छुआ । नाम, रूप, गुण, लीला के अभिनय का काव्यमंच पर उन्होंने सांस्कृतिक कथाओं को नयी वाणी और नये तेवर दिये। नयी पहचान दी। पात्र तो सारे के सारे भारतीय संग्रहालय के ही थे पर उनमें वाणी भर देने का श्रेय गुप्तजी का है। इसी प्राणवत्ता के कारण ये पात्र आत्मीयता के गंध से भरे भारतीय जनमानस में विचरने लगे। नारी मन की गाथा का सूत्रवाक्य "अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी । आँचल में है दूध और आँखों में पानी" आधे विश्व के क्षत्विक्षत मन का आलेप बन गया। गुप्तजी ने जब उपेक्षिताओं के उद्धार का व्रत लिया तो उसमें एक चारित्रिक ध्वजा फहरा दी जो परवर्ती जनजीवन का जीवनादर्श बन गया। एक स्थापना दे दी जिसका चिरन्तन मूल्य हो गया। इन्हीं विशेषताओं से गुप्तजी के पात्र पुराणों की लंगड़ी वैसाखी फेंक अपने पैरों * अवकाशप्राप्त विश्वविद्यालय आचार्य एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, बिहार विश्वविद्यालय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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