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________________ 160 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 भले नहीं आई है जो 'साकेत' में, परन्तु इसकी खड़ी बोली में कहीं निखार, प्राञ्जलता और कांतिमयता का आविर्भाव हो गया है । एक उदाहरण ही पर्याप्त है : - "चारु चन्द्र की चञ्चल किरणें खेल रही थीं जल-थल में ।" ( पंचवटी) यहाँ तक आते-आते गुप्तजी की लेखनी काव्य में रमणीयता के सृजन, अलंकरण और वाग्वैदग्ध्य की ओर तेजी से उन्मुख होती हुई दिखाई देती है। बाद में छायावादी गीति शैली की सुकुमार भाव व्यंजना, विरह-वेदना और लाक्षणिकता, अन्योक्ति पद्धति का प्रभाव पड़ा और उस नयी काव्यधारा में भी गुप्तजी का कवि खूब रमा और 'वैतालिक' तथा 'झंकार' जैसी नये ढंग की छायावादी चाल में ढली काव्यकृतियाँ प्रकाश में आयीं। एक छोटा सा उदाहरण पेश है निकल रही है उर से आह । ताक रहे सब तेरी राह । चातक खड़ा चोंच खोले है, सम्पुट खोले सीप खड़ी। मैं अपना घट लिये खड़ा हूँ, अपनी-अपनी हमें पड़ी । ( झंकार ) गुप्त काव्य के विकास पथ में 'पंचवटी' भी मील का पत्थर है। इसकी रचना से कवि के कृतित्व के प्रारम्भिक काल को समाप्ति होती है, मध्यकाल का उदय होता है। गुप्तजी का कवि व्यक्तित्व हिन्दी की छायावादी प्रवृत्तियों से ज्यों-ज्यों प्रभावित होते गये, उनके आख्यान काव्यों और फुटकर काव्यों की भाषा परिष्कृत और परिमार्जित होती गयी। भावों की व्यंजना में लाक्षणिकता, वाग्वैदग्ध्य का समावेश होता गया। सब मिलाकर यों कहें कि उसी प्रभाव काल में उनके दो महाकाव्यों 'यशोधरा' और 'साकेत' की रचना हुई। 'यशोधरा' का विशिष्ट काव्य रूप क्या है, इसमें खुद गुप्तजी ने अपने अनुज सियारामशरण गुप्त को सम्बोधित करते हुए कहा था-कविता लिखो, गीत लिखो, नाटक लिखो। अच्छी बात है। लो कविता, लो गीत, लो नाटक और गद्य-पद्य; तुकान्त-अतुकान्त सभी कुछ, परन्तु वास्तव में कुछ भी नहीं ।" __ वस्तुतः गुप्तजी ने उन तीन दशकों में काव्य के विभिन्न रूपों की रचना में प्रवीणता हासिल कर ली थी। हस प्रबन्ध काव्य में उन्होंने विभिन्न काव्य रूपों का प्रयोग किया ही है, विषय की प्रस्तुति की दृष्टि से भी उन्होंने वैष्णव धर्म और बौद्ध धर्म को करुणा के सेतु पर समन्वय की विराट् कलात्मक चेष्टा की है। 'यशोधरा' वैष्णव धर्म की सुकुमार प्राणमयी करुण मूर्ति है, बुद्ध सत्य और अहिंसा के जाग्रत देवता। दोनों धर्म परम्पराओं के समन्वय की तलाश ही उनकी इस महत्तर कृति का लक्ष्य है। बुद्ध की बेचैनी का चित्र कितना प्रभाव व्यंजक और लाक्षणिकता और प्रतीकात्मकता से सम्पन्न है :-- देखी मैंने आज जरा ! हो जावेगी क्या ऐसी ही मेरो यशोधरा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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