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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6
जोड़कर सिर से नमस्कार करे और मन, वचन तथा काम योग से सदैव काल यथोचित सत्कार करे' ।
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शिक्षार्थी के प्रकार
शैल, कुट, छलनी, परिपूणग, हंस महिष, मेढ़े, मच्छर, जलूग, बिलाड़ी, जाहग, गाय, भेरि और आभीरों आदि की उपमा देकर शिक्षार्थी के चौदह प्रकार बताये गये हैं
१ - कुछ शिष्य पर्वत के समान कठोर तथा कृष्णभूमि अर्थात् काली मिट्टी वाली जमीन के समान गुरु द्वारा बताये गये अर्थ ग्रहण करने में समर्थ होते हैं ।
२ - कुट अर्थात् घट चार प्रकार के छिद्र हो ( ख ) खंडकुट - जिसके कन्ने टूटे हों हो । (घ) सकलकुट -- जो घड़ा सम्पूर्ण हो । बोटकुट तथा कुछ सम्पूर्ण कुट के समान होते हैं ।
३ - कुछ शिष्य चालिणी (छलनी) के समान होते हैं, जो गुरु के वक्तव्य को एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से निकाल देते हैं ।
बताये गये हैं- ( क ) छित्रकुट जिसके पेंदी में (ग) बोटकुट - जिसका एक ओर का कयाल इसी तरह कुछ शिष्य छिप्रकुट, कुछ खंडकुट, कुछ
४ - कुछ शिष्य दूध छानने का छन्ना ( परिपूणग) की भाँति होते हैं । दूध या घी छानने पर दूध नीचे चला जाता है और गंदगी ऊपर रह जाती है, कुछ शिष्य दोष और अवगुण ही ग्रहण करते हैं ।
५ - कुछ शिष्य हंस के समान होते हैं, जैसे हंस जल मिश्रित क्षीर में से क्षीर को ग्रहण कर लेता है और नीर को छोड़ देता है उसी प्रकार कुछ शिष्य गुणों को ग्रहण करते हैं और दोषों को छोड़ देते हैं ।
६ - कुछ शिष्य महिषा के समान होते हैं, गंदा कर देता, जिसके कारण जल को न स्वयं ही कुछ शिष्य व्याख्यान के प्रारम्भ होने पर आचार्य को का देते हैं कि वे न तो उसे ही पढ़ा सकते हैं और न दूसरे विद्यार्थी को ही ।
जिस प्रकार उसी प्रकार
जैसे महिष तालाब में घुसकर जल को पाता है और कोई दूसरा ही । वैसे ही अनेक प्रकार की विकथाओं से इस प्रकार
७ - कुछ शिष्य मेढ़े की भाँति होते हैं, जिस प्रकार मेढ़ा मूँह को आगे की ओर झुकाकर चुपचाप जलग्रहण करता है, उसी प्रकार शिष्य आचार्य को उत्तेजित किये बिना चुपचाप शिक्षा ग्रहण करते हैं ।
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८—कुछ शिष्य मच्छर के समान होते हैं जो बैठते ही काट लेते हैं ।
९ - कुछ शिष्यों को उस जलौगे की भाँति बताया गया है जो शरीर को किसी प्रकार का कष्ट पहुँचाये बिना रुधिर का पान करतो है । ऐसे शिष्य आचार्य को किसी प्रकार का ष्ट पहुँचाये बिना श्रुतादि ज्ञान का पान करते हैं ।
९. वही, ९।१२ ।
२. सेलवण कुडग चालिणी, परिपूणग हंस महिस मैसे य ।
मसग जलूग बिराली, जाहग गो भेरी आभीरी ॥ वृहत्कल्प सूत्र - पीठिका ३३४ ।
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