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जैन शिक्षादर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व
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के आसन से नीचा हो, जिससे कोई आवाज न निकलती हो, जो स्थिर हो'। उनके आसन के बराबर न बैठे, न आगे न पीठ के पीछे ही सटकर बैठे । गुरु के अति निकट भी न बैठे जिससे संघट्टा हो जाय, यदि संघट्टा हो भी जाए तो उसी समय क्षमा याचना करते हुए कहना चाहिए-भगवन् ! दास का यह अपराध क्षमा करें, फिर कभी ऐसा नहीं होगा । गुरुश्री के एकबार अथवा अधिक बार आमंत्रित करने पर, बुद्धिमान शिष्य को अपने आसन पर से ही आज्ञा सुनकर उत्तर नहीं देना चाहिए बल्कि आसन छोड़कर विनम्र भाव से कथित आज्ञा को सुनकर तदनुसार उत्तर देना चाहिए । पलथी लगाकर दोनों हाथों से शरीर को बांधकर तथा पैरों को फैलाकर भी नहीं बैठना चाहिए। आसन अथवा शय्या पर बैठा-बैठा कभी भी गुरु से कोई बात नहीं पूछना चाहिए बल्कि उनके समीप आकर, उकड़ आसन में बैठकर हाथ जोडकर पूछना चाहिए। आसन से बार-बार अर्थात् निष्प्रयोजन न उठना, स्थिर एवं शान्त होकर बैठना । शिक्षा प्राप्ति के बाद गुरु की कृतज्ञता स्वीकार करते हुए विनयभाव से वन्दना करनी चाहिए । पाँच प्रकार के विनय (खड़ा होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति तथा भावपूर्वक शुश्रुषा करना) पंच विध स्वाध्याय (वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा करना) तथा आचार्य से सम्बन्धित दस प्रकार के वैयाकृत्य में सदा संलग्न रहना चाहिए। क्षेत्र और काल, भावों को तथा गुरु के मनोगत अभिप्रायों को तथा सेवा करने के समुचित साधनों को भले प्रकार से मालूम करके तत् तत् उपायों से कार्य का संपादन करना शिक्षार्थी का परम कर्तव्य है । अतः शिष्य का कर्तव्य है कि जिस गुरु से आत्मविकासी धर्मशास्त्रों के गूढ़ पदों की शिक्षा ले, उसकी पूर्ण रूप से विनय भक्ति करे अर्थात् हाथ
१. आसणे उवचिढेजा, अणुच्चे अकुए थिरे । उत्तराध्यय-११३० तथा देखें दशवैकालिक
९।२।१७ । २. न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ । वही-११८ । ३. संघट्टइता कारणं, तहा उवहिणामवि ।
खमेह अवराह मे, वइज्ज न पुणुत्ति अ । दशवैकालिक ९।२।१८ ।
तथा देखें उत्तराध्ययन-१।१८ । ४. आलवंते वा लंवते वा, न निसिज्जाइ पडिस्सुणे ।
मुत्तूण आसणं धीरो, सुस्सूसाए पडिस्सुणे ॥ दशवैकालिक ९।३।२० । ५ उत्तराध्ययन, १।१९ । ६. वही, ११२२ । ७. अप्पपुटणई निरुढाई निसीएज्जऽप्पकुक्कुए । वही-१।३० । ८. वही, ५४-५९ । ९. वही, ३०।३२-३४ । १०. काणं छंदोवयाहं च, पडिलेहित्ताण हेउहि ।
तेण तेण उवाएणं, तं तं संपड़िवायाए । दशवकालिक ९।८।२१ ।
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