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________________ जैन शिक्षा दर्शन में शिक्षार्थी को योग्यता एवं दायित्व विजय कुमार * मानव जीवन सभी जीवनों में श्रेष्ठ माना गया है और विद्यार्थी जीवन को मानव जीवन में भी सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हैं । या, यों कहा जाए कि विद्यार्थी जीवन अन्य जीवनों की रीढ़ है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। क्योंकि जिस प्रकार विशाल भवन के निर्माण में नींव के प्रथम पत्थर या ईंट का जो महत्वपूर्ण स्थान होता है, उसी प्रकार मानव जीवन के निर्माण में विद्यार्थी जीवन का सर्वोपरि स्थान होता है । ब्राह्मण संस्कृति में जीवन को चार भागों में विभक्त किया गया है जिनमें पहला भाग विद्यार्थी जीवन ही है, जिसे ब्रह्मचर्याश्रम के नाम से जानते हैं | श्रमण-परम्परा में ब्रह्मचर्याश्रम का कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है, क्योंकि श्रमण परम्पराओं ने आध्यात्मिक जीवन पर अधिक बल दिया है । फिर भी, जैन ग्रन्थ आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम तथा भिक्षुक आदि चार आश्रमों को स्वीकार किया है' । । है शिक्षा + अर्थी । प्राचीन काल में शिक्षार्थी को विद्या अर्जन के लिए आचार्य के आश्रम में जाना पड़ता था, जो अरण्य में रहा करते थे । गुरु (आचार्य) प्राय: सांसारिक विषय भोगों से विरक्त साधु हुआ करते थे । जिनसे शिक्षार्थियों को न केवल किताबी ज्ञान ही मिलता था अपितु व्यवहारिक जीवन का भी ज्ञान प्राप्त होता था । शिक्षार्थी का अर्थ होता ही अर्थात् जो शिक्षा यानी विद्या का इच्छुक हो, वह शिक्षार्थी कहा जाता है 'छात्र' शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। छात्र की व्युत्पत्तिमूलक अर्थ रणाचार्य पण्डित तारणीश झा ने कहा है- "छत्रं गुरोर्दोषावरणं, तत् शीलमस्य सः छात्र: " । अर्थात् गुरु के दोषों पर आवरण डालना छत्र है तथा जिसका इस प्रकार का आचरण, वह छात्र है । । विद्यार्थी के लिए बताते हुए व्याक अध्ययन काल जैनागम के अनुसार बालक का अध्ययन कुछ अधिक ८ वर्ष से प्रारम्भ होता है । महावीर ने भी आठ वर्ष की उम्र में लेखशाला में प्रवेश किया था । महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ ने महावीर को लेखशाला में भेजने से पूर्व नैमित्तिकों को बुलाकर मुहूर्त निकलवाया और स्वजनों को निमंत्रित कर उनका सत्कार किया । तत्पश्चात् वाग्देवी की प्रतिमा पूजन के लिए * शोध छात्र, दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी । १. ब्रह्मचारीगृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथभिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः ।। १५१ ॥ आदिपुराण ३८ वा अध्याय । २. संस्कृत शब्दार्थ-कोश | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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