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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 माना जाता है, तो शब्दब्रह्म को भी अबस्नु मानना पड़ेगा। प्रभाचन्द्र के मतानुसार अर्थक्रियाकारी होने पर उसे अवस्तु कहा जाता है, तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि अवस्तु अर्थक्रिया का दूसरा नाम है । अविद्या को अर्थक्रियाकारी न मानने से एक दोष यह भी आता है कि वह वस्तु रूप न हो सकेगी और ऐसा न होने पर शब्द-अद्वैतवादियों का यह कथन 'अविद्या कलुषत्व की तरह हो जाती है' नहीं बन सकेगा २ । अविद्या के अवस्तु होने पर एक दोष यह भी आता है कि दृष्टान्त और दार्टान्त में समानता नहीं रहती, क्योंकि आकाश में असत् ( मिथ्या ) प्रतिभास का कारणभूत अन्धकार (तिमिर) वस्तुरूप है और अविद्या अवस्तुरूप । जब अविद्या अवस्तु है, तो वह विचित्र प्रतिभास का कारण कैसे बन सकती है। एक स्वभाव वाली दो वस्तुओं में दृष्टान्त और दार्टान्त बन सकता है। वास्तविक और अवास्तविक पदार्थों में दृष्टान्त और दार्टान्त नहीं बन सकता। अतः शब्द-अद्वैतवादियों का यह कथन भी ठीक नहीं है कि जिस प्रकार तिमिर से उपहृत जन विशुद्ध-आकाश को नाना प्रकार को रेखाओं से व्याप्त मान लेता है, उसी प्रकार यह अनादि-निधन-शब्दब्रह्म निर्मल और निर्विकार है, किन्तु अविद्या के कारण (अविद्यारूपी तिमिर से उपहत नर) उसे घट-पटादि कार्य के भेद में प्रादुर्भाव और विनाशवाला अर्थात् भेदरूप में देखता है।" शब्दब्रह्म से भिन्न अवस्तुस्वरूप अविद्या के वशीभूत हकर नित्य, अनाधेय और अतिशय रूप शब्दब्रह्म भेदरूप से प्रतिभासित होता है, यह कथन भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि अवस्तु के वशीभूत होकर वस्तु अन्य रूप नहीं हो सकती हैं। प्रभाचन्द्र , अभयदेव ५ और १. तत्कारित्वेऽप्यस्या अवस्तु इति नामान्तरकरणे नाममात्र मिव भिद्यत् । --न्या०कु०च०, १/५, पृ० १४३ २. (क) कथमेवम् 'अविद्यया कलुषत्वमिवापन्नम्' इत्यादि वचो घटेत ? ---न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४३ । (ख) स्या० २०, १/७, पृ० ९९ । ३. (क) प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १/३, पृ० ४५ । (ख) प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४३ । (ग) वादिदेवसूरि : स्या० र०, १/५, पृ० ९९ । ४. न चा लाधेपा प्रहेयातिशयस्य ब्रह्मणः तद्वशात् तथाप्रतिभासो मुक्तोतिप्रसङ्गात नाप्यवस्तुवशाद् वस्पुनोन्यथाभावो भवति, अतिप्रसङ्गाच्च । -प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, पृ० १४३ । ५. न च • • • • ब्रह्मणि तस्या अकिञ्चित्करत्वात् • • • ----सन्मति तर्क प्र० टीका, तृतीय विभाग, पृ० ३८५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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