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शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 79 स्याद्वादरत्नाकर में वाणिदेव प्रश्न करते हैं—शब्द-अद्वैतसिद्धान्ती बतायें कि शब्दब्रह्म होने पर भी क्यों नहीं प्रकाशित होता ? यहाँ भी दो विकल्प हो सकते हैं :
(क) ग्राहक का अभाव होने से वह प्रकाशित नहीं होता ? अथवा, (ख) अविद्या के अभिभूत होने से ?
यह मानना ठीक नहीं है कि ग्राहक ( ज्ञान ) का अभाव होने से वह प्रकाशित नहीं होता, क्योंकि शब्द-अद्वैत-सिद्धान्त में शब्द-ब्रह्म ही ग्राहक रूप है और ग्राहकत्व शक्ति उसमें सदैव रहती है। तात्पर्य यह है कि शब्दब्रह्म में ग्राह्यत्व और ग्राहकत्व दोनों शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं—ऐसा शब्द-अद्वैतवादी मानते हैं। इसलिये जैन तर्कशास्त्रियों का कहना है कि जब शब्दब्रह्म में ग्राहकत्व शक्ति सदैव विद्यमान रहती है, तो उसे अयोग्यावस्था में प्रकाशित होना चाहिये २ । अतः शब्द-अद्वैतवादियों का यह तर्क ठीक नहीं है कि ग्राहक (ज्ञान) का अभाव होने से वह प्रकाशित नहीं होता।
अविद्या से अभिभूत होने से ब्रह्म होते हुए भी अयोग्यावस्था में वह प्रकाशित नहीं होता-यह विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि विचार करने पर अविद्या का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता। प्रभा वन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र में विशुद्ध रूप से अविद्या पर विचार कर उसका निराकरण किया है। वे प्रश्न करते हैं कि अविद्या ब्रह्म से भिन्न है कि अभिन्न 3 ? यदि अविद्या ब्रह्म से भिन्न है, तो जिज्ञासा होती है कि वह वस्तु (वास्तविक) है अथवा अवस्तु ४ (अवास्तविक) ? स्याद्वादरत्नाकर और शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका में भी इसी शैली के अनुसार अविद्या का निराकरण किया गया है । अविद्या वस्तु नहीं हो सकती
शब्दब्रह्म से भिन्न मानकर अविद्या को अवस्तु नहीं माना जा सकता, क्योंकि अवस्तु वही होती है, जो अर्थक्रियाकारी न हो। अविद्या शब्दब्रह्म की भाँति अर्थक्रियाकारी है, इसलिए उसे अवस्तु नहीं माना जा सकता। यदि अर्थक्रियाकारी होने पर भी उसे अवस्तु
१. (क) अथास्ति कस्मान्न प्रकाशते-ग्राहकाभावात् अविद्याभिभूतत्वाद्वा ?
-प्रभाचन्द्र (न्या०कु०च ०), १/५, पृ० १४२ (ख) वादिदेवसूरि-१/७, पृ० ९९ । २. . . . . ब्राह्मण एव तद्ग्राहकत्वात् , तस्य च नित्यतया सदा सत्वात्।
----वादिदेवसूरि, १/७, पृ० ९९ ३. (क) सा हि ब्रह्मणो व्यतिरिक्ता, अव्यतिरिक्ता वा ?
-प्रभाचन्द्र : न्यायकुमुद चन्द्र , १/५, पृ० १४३ (ख) सा हि शब्दब्रह्मणः सकाशाद्भिन्ना भवेदभिन्ना वा ।
-वादिदेवसूरि, स्या०र०, २/७, पृ० ९९ (ग) यशोविजय : शा०वा०स०टी०, पृ० २३७ । ४. -वही
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