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________________ महाकवि पुष्पदन्त का भाषात्मक अवदान 61 ११. पुष्पदन्त की भाषा का चमत्कार उनके विभिन्न वर्णनों में देखने को मिलता है ।१४ किन्तु वह काव्य-सौष्ठव का विषय होने के कारण यहाँ विवेचन नहीं है। महाकवि के द्वारा प्रयुक्त लोकोक्तियाँ एवं मुहावरे अवश्य ही उनके भाषात्मक अवदान में वृद्धि करते हैं । थोड़े शब्दों में सूक्ष्म अर्थ को भरना पुष्पदन्त की विशेषता रही है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं :लोकोक्तियाँ १---ण सुहाह उलूयहो उइउ माणु । ( म० पु० १. ८. ५) .....उल्लू को सूर्योदय नहीं सुहाता । २--जो रसन्तु वरिसइ सो णवघणु । ( म० पु० २. १४. ७) -- जो रस की वर्षा करे, वह बादल । ३-भरियउं पुण्ड रित्तिउ होइ । ( म० पु० ३९. ८. ५) --जो भरता है, वह खाली भी होता है । ४-हयलु वि गज्जई णियय घरि । ( म० पु० ५६. ७. १३) ...--अपने घर पर सभी गरजते हैं। मुहावरे अडइ रणु =अरण्य रोदन ( ण० च० ४. ३. १३) घय दुद्धइ सप्पहो-साँप को दूध पिलाना ( ज० च० १. १९. १०) वायरण वियारणु जडहँ जिह-जैसे मूर्ख का व्याकरण पढ़ना (म० पु० ६२. ११. ४.) कट्ठ कणएँ जडिउउ–काठ में सोना जड़ना ( म० पु० ४४. ११. ४) अठ्ठाविउ सुत्तउ सीहु कोण-सोते सिंह को जगाना ( म० पु० १२. १७) भुअकंउ छणयंदहु सारमेउ पूर्णिमा के चाँद पर कुत्ते का भोंकना ( म० पु० १.८) इस प्रकार महाकवि पुष्पदन्त का भाषात्मक ज्ञान वैविध्यपूर्ण एवं पर्याप्त समृद्ध है । उनकी रचनाओं में भारतीय भाषाओं की विपुल सामग्री उपलब्ध हैं। उसे देखते हुए यही लगता है कि पुष्पदन्त ने णायकुमारचरिउ ( १. १. ३-१० ) में सरस्वती वन्दना करते समय जो कहा था कि सरस्वती शब्द और अर्थ दोनों प्रकार के अलंकारों से युक्त हैं, लीलायुक्त कोमल सुबन्त और तिङन्त पदों की दात्री है, महाकाव्य रूपी भवन में संचरण करती है, बहुत से हाव-भाव के विभ्रमों से युक्त है, सुप्रशस्त अर्थ से आनन्द उत्पन्न करती है, समस्त ज्ञान-विज्ञान से परिपुष्ट है, समस्त देश भाषाओं का व्याख्यान करने वाली है और संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के लक्षणों को प्रकट करती है-जिसका नाम व्याकरण वृत्ति से विख्यात है, वह सरस्वती मुझ पर प्रसन्न हों :-- १४. श्री रंजन सूरिदेव "महापुराण की काव्य भाषा", जैन-विद्या, अप्रैल, १९८५, पृ० ४३-४९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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