________________
56
Vaishali Institute Research Bulletin No. 6
णीव
चन्द्रमा
पंक
पाप
< नृप < पंक < प्रग्ने < मुद्गर
= राजा = कीचड़ = प्रातः = कली
परई
परसों बेला का फूल
मोग्गर
V
V
३. कुछ ऐसे शब्द भी महापुराण में प्रयुक्त हैं, जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत से मानी जा सकती है, किन्तु वे लोक में बहु प्रचलित होने के कारण देशी शब्दों की कोटि में गिने जाते हैं । इन्हें अधं देशी शब्द कहा जा सकता है । यथा-- अलयद्द अलगद
जलसर्प अवड < अवट = कुंआ आहुट्टह अर्ध चतुष्ट
साढ़े तीन धियोरी घृतपूर
मिष्ठान्न ( घेवर) थोरा < स्थूर == अधिक घाड
संतोष ( धापना) पल्ली < पद्र - गाँव मल्ल भद्र
अच्छा ( भला) सलोना स+लवण
सुन्दर
V
घा
V
V
४. अपभ्रंश साहित्य की एक प्रमुख विशेषता है-देशी शब्दों का प्रयोग। प्राकृत साहित्य से भी अधिक देशी शब्दों का प्रयोग अपभ्रंश साहित्य में हुआ है। शायद इसीलिये कई अपभ्रंश कवियों ने अपनी रचनाओं की भाषा को 'देशीभाषा' कहा है। विद्वानों ने देशी शब्द की परिभाषा आदि के सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन किया है । वस्तुतः जो शब्द लोक में प्रचलित होने के कारण रूढ़ हो जाते हैं और उनका साहित्य में प्रचलित मानक भाषा से सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता उन्हें देशी शब्द कहा गया है। प्रयोग और अर्थ के आधार पर इन देशी शब्दों की कुछ कोटियाँ भी बन सकती है। पुष्पदन्त ने अपने ग्रन्थों में प्रायः सभी प्रकार के देशी शब्दों का प्रयोग किया है। महापुराण में शुद्ध देशी शब्द लगभग ६०० हैं । इन सबकी विवेचना श्रीमती डा० रत्ना श्रेयान् ने अपने ग्रन्थ में की है। कुछ शब्द इस प्रकार हैं :
७. शास्त्री, देवेन्द्र कुमार; अपभ्रंश भाषा और साहित्य को शोध प्रवृत्तियाँ, दिल्ली, १९७२,
पृ० ११-१२। ८. पिशेल, आर०; कम्पेरेटिव ग्रामर ऑफ प्राकृत लेंगयू एजेज, वाराणसी, पैरा ९ । ९. श्रेयान, रत्ना, वही, पृ० १९ आदि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org