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Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 बचा रहता है। यह उत्तम 'नाग' है, क्योंकि इसका गुख्य धर्म आर्जव है । (अग्) तिर्यक् गति करने के अर्थ में होता है। इसलिए नाग वह है, जिसमें तिर्यक् गति न हो अर्थात् जिसमें ऋजुता हो। यह समस्त पृथिवी का धारक है। किन्तु यह धारण का कार्य अपने अनन्त भोगों के द्वारा, अर्थात् अनन्त रूपों के द्वारा सम्पन्न करता है। इस तरह भिन्नभिन्न देश-काल के जो भिन्न-भिन्न धर्म हैं, वे विविध होते हुए भी परस्पर सम्पूरक हैं, क्योंकि उनका सही लक्ष्य एक ही है ।
हम यदि अपने देश के ही धर्मों के विकास पर दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि उपादेयता को अक्षुण्ण रखने के लिए धर्म की व्यवस्थाओं में परिवर्तन, परिशोधन, पुनर्गठन आदि होते रहे हैं। इसी क्रम में भिन्न-भिन्न धर्म हमारे सामने आते हैं। जिन्हें हम श्रमण धर्म कहते हैं, उनके उदय का भी मुख्य हेतु धर्म की सामाजिक उपादेयता को सर्वांगीण सार्थकता प्रदान करना ही होना चाहिए।
__ श्रमण शब्द की व्युत्पत्ति मूलक व्याख्या करते समय इसे श्रम से निष्पन्न माना गया है और इस तरह यह सिद्ध किया गया है कि श्रमणधर्म का मूलाधार है-श्रम, खेदकायक्लेश अथवा तपस्या । किन्तु संस्कृत का श्रमण शब्द पाली-प्राकृत के समण शब्द का मात्र प्रयोगात्मक (tentative) रूपान्तर हो सकता है । अन्यत्र इस शब्द का सम्बन्ध 'सम' और 'शम'२ से भी बतलाया गया है, जिसके अनुसार श्रमण धर्म का मूलाधार समताभाव और रागद्वेष से निवृत्ति होना चाहिए।
प्राचीन शास्त्रों के अनुसार निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीवक श्रमण कहे गये हैं। इनमें अब केवल प्रथम दो का ही अभिज्ञान (identity) शेष रह गया है । अतः व्यवहार में सम्प्रति श्रमण धर्म से बौद्ध और जैन धर्मों को ही अभिहित किया जाता है। यदि हम इन दोनों धर्मों के छोटे-मोटे भेदों को भूल जाँय और व्यापक सामान्यताओं तक ही अपनी दृष्टि सीमित रखें तो श्रमण धर्म की मूल भित्ति की एक धारणा बन सकती है।
अर्धमागधी आगमों में कई प्रसंग आते हैं, जहाँ अन्य धर्मों की अपेक्षा जैनधर्म की उपादेयता सिद्ध करने के लिए अन्य धर्मानुयायियों के साथ जैन मुनियों का एक तरह का शास्त्रार्थ दिखलाया गया है। ऐसा एक प्रसंग नायाधम्म कहाओ में थावच्चापुत्त कथा के अन्तर्गत आया है। यह थावच्चापुत्त और शुक परिव्राजक के अनुयायी सुदर्शन के बीच धर्म के मूल तत्वों को लेकर आपसी वार्ता का प्रसंग है । यहाँ जैनधर्म को थावच्चापुत्त ने १. समयाए समणो होई............
उत्तराध्ययन २५ (३२) २. यो च समेति पापानि अणुं थूलानि सब्बसो। समितत्ता हि पापान समणो ति पवुच्चति ।
धम्मपद २६४ ३. निग्गंथसक्कतावसगेरुय आजीवं पंचहा समणा। (प्रवचनसारोद्धार (६४)
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