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________________ धर्म को मनुष्य के हित और निःश्रेयस का की सुख-शान्ति का साधक है, वहाँ यह सामाजिक निम्नोक्त परिभाषा सुविख्यात है श्रमणधर्म और समाज राम प्रकाश पोद्दार, एम० ए०, पी-एच० डी० धारणात्धर्ममित्याहु धर्मेण विधृताः प्रजाः । यः स्याद्धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ॥ ---- ( महा० शान्ति० - १०९ (११) इस परिभाषा के अनुसार धर्म का मुख्य कार्य है समष्टि का धारण-पोषण । एक और जहाँ धृति क्षमा दम अस्तेयादि' धर्म के लक्षण हैं, वहाँ दूसरी ओर व्यक्ति के पारिवारिक सामाजिक कर्त्तव्य भी धर्म हैं, क्योंकि इनके द्वारा समष्टि का धारण-पोषण होता है । प्राचीन काल में जो वर्णों के निज निज कर्म को धर्म की संज्ञा दी गयी है, वह इसलिए कि इनके द्वारा वर्णों का परस्पर उपग्रह होता था और इस तरह पूरे समाज का धारण-पोषण होता था । धृति क्षमादि मनुष्य के व्यक्तिगत शील भी इसलिए उपादेय हैं कि इनके द्वारा मनुष्यों का अथवा व्यापक अर्थ में जीवों का परस्पर उपग्रह होता है । उक्त उद्धरण में उसे धर्म कहा गया है जो 'धारण से युक्त' है । तदनन्तर उसे धर्म कहा गया है जो 'अहिंसा संयुक्त' है क्योंकि परस्पर धारण-पोषण का मूल है 'अहिंसा' और धृति, क्षमा, दमादि, अहिंसा के साधक हैं । २ १. साधक कहा गया है । धर्म जहाँ व्यक्ति सुख-शान्ति का भी घटक । धर्म की इस तरह हम कह सकते हैं कि धर्म मनुष्य की एक सामाजिक आवश्यकता है और देश-काल-पात्र भेद से इसका स्वरूपभेद स्वाभाविक ही नहीं, आवश्यक है । महाभारत के आदि पर्व में शेष की कथा के अन्तर्गत धर्म की विविधता की अभिव्यञ्जना हुई है । शेष की कथा का उपसंहार करते हुए कहा गया है C शेषोऽसि नागोत्तम धर्मदेवो महीमीमां धारयसे यदेकः । अनन्तभोगैः परिगृह्य सर्वां यथाऽहमेवं बलभिद्यथा वा ॥ २. (महा० आदि, ३५, ३२) यहाँ कथाकार ने शेष के व्याज से धर्म का वर्णन किया है ।। धर्म शेष है, क्योंकि जगत के क्षयशील होने पर भी यह सर्वदा शेष रहता है, जगत के बीतते रहने पर भी यह Jain Education International धृतिः क्षमा दमोsस्तेयं शोचमिन्द्रियनिग्रहः । धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ अहिंसार्थाय भूतानां धर्मं प्रवचनं कृतम् । यः स्यादहिंसा संयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ॥ १० For Private & Personal Use Only मनु० ६, ९२ । महा० शा ० १०९ (१२) www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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