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________________ सत् का लक्षण : अर्थ क्रियाकारित्व राजकुमार छाबड़ा एम० ए० सत् को अनेक प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। जैसे दार्शनिक सत् उसे कहते हैं जो उत्पादव्ययधोव्य युक्त हो।' सत् के इस लक्षण के साथ उनके द्रव्य, गुण और पर्याय-ये तीन संप्रत्यय जुड़े हुए हैं। द्रव्य में प्रतिक्षण पूर्व पर्याय का व्यय और उत्तर पर्याय का उत्पाद होता रहता है। यह उत्पादव्यय द्रव्य का परिणाम' (कार्य) है और इस तरह से परिवर्तित होते रहने पर भी द्रव्य अपने स्वरूप (गुणों) को नहीं छोड़ता, यह उसका 'ध्रौव्य' है । इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार सत् परिणामीनित्य है। बौद्धों का कहना है कि नित्य पदार्थ सत् नहीं हो सकता ।२ इस स्थापना के लिए बौद्ध दिइ०-नाग स्कूल में सत का लक्षण 'अर्थ-क्रिया सामर्थ्य' दिया गया है। धर्मकीर्ति 'वादन्याय' में कहते हैं कि “नित्य क्रम या युगपत किसी भी प्रकार से अर्थक्रिया नहीं कर सकता"। अर्हत् हेतु बिन्दुटीका में यही बात अर्थक्रिया की जगह 'कार्य क्रिया' शब्द का प्रयोग करके कहते हैं । अतः "जो अर्थक्रिया समर्थ है. वह सत् है" इसका तात्पर्य हुआ कि सत् वह है जो कार्योत्पादन में समर्थ है। सत् के इस लक्षण द्वारा बौद्ध दार्शनिक क्षणिकवाद की स्थापना करते हैं। जैन दार्शनिकों का कहना है कि जिस तरह से सत् को कूटस्थ नित्य मानने पर उसमें अर्थक्रियाकारित्व सिद्ध नहीं हो पाता, उसी तरह से सर्वथाक्षणिक सत् भी अर्थक्रियारहित सिद्ध होता है। अकलंकदेव के अनुसार "पूर्वस्वभाव का त्याग और उत्तर स्वभाव की प्राप्ति यह अर्थक्रिया का लक्षण है"। (यहाँ 'स्वभाव' शब्द अवस्था का वाचक है।) यह लक्षण कथचित् नित्य (द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से नित्य) सत् में ही घटित हो सकता है जो कि अपनी पूर्व अवस्था को छोड़कर उत्तर अवस्था को ग्रहण करता है। द्रव्य में यह अर्थक्रिया प्रतिक्षण होती रहती है इसलिए वह सदैव सत् है । नित्य पदार्थ की कल्पना दो प्रकार से की जा सकती है :(१) कूटस्य नित्य । (जैसे सांख्य का पुरुष तत्व) (२) परिणामीनित्य । (जैसे सांख्य का प्रकृति तत्व) १. उत्पादव्ययध्रौन्ययुक्तंसत् । तत्वार्थसूत्र ५॥३० २. अर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणत्बाद वस्तुतः । न्यायबिन्दु १११५ ३. देखें-'अकलंकग्रंथ त्रयम्' पृ० १३७ पर 'अर्थक्रिया' पर दी गयी टिप्पणी । सं०-महेन्द्रकुमारशास्त्री। प्र० सिंघी जैन ग्रंथमारण, अहमदाबाद १९३९ । ४. पूर्वापरस्वभावपरिहारावाप्तिलक्षणामर्थक्रियां....." । अष्टशती (अष्ठसहस्त्री अन्तर्गत) निर्णयसागरप्रेस १९१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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