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________________ ज्ञान और कथन की सत्यता का प्रश्न : जैन-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में कथन को "सत्य" कहते हैं । भाषा में अर्थ बोध की सामर्थ्य प्रयोगों के आधार पर विकसित होती है । वस्तुतः कोई शब्द या कथन अपने आप में न तो सत्य होता है और न असत्य (This is a table) | यह कथन अंग्रेजी भाषा के जानकार के लिए सत्य या असत्य हो सकता है, किन्तु हिन्दी भाषा के लिए न तो सत्य है और न असत्य । और असत्यता तभी सम्भव होती है, जबकि श्रोता को कोई अर्थ बोध ( वस्तु का मानस प्रतिबिम्ब) होता है, अतः पुनरुक्तियों और परिभाषाओं को छोड़कर कोई भी भाषायी कथन निरपेक्ष रूप से न तो सत्य होता है, और न असत्य । किसी भी कथन की सत्यता या असत्यता किसी सन्दर्भ विशेष में ही सम्भव होती है । कुथन की सत्यता जैन दर्शन में कथन की सत्यता का प्रश्न जैन दार्शनिकों ने भाषा की सत्यता और असत्यता के प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया है । प्रज्ञापनासूत्र (पनवन्न ) में सर्वप्रथम भाषा को पर्याप्त भाषा और अपर्याप्त भाषा ऐसे दो भागों में विभाजित किया गया है । पर्याप्त भाषा वह है जिसमें अपने विषय को पूर्णतः निर्वचन करने की सामर्थ्य है और अपर्याप्त भाषा वह है जिसमें अपने विषय का पूर्णतः निर्वचन, सामर्थ्य नहीं है । अंशतः, सापेक्ष एवं अपूर्ण कथन अपर्याप्त भाषा का लक्षण है । तुलनात्मक दृष्टि से परिचात्य परम्परा की गणितीय भाषा टॉटोलाजी एवं परिभाषाएँ पर्याप्त या पूर्ण भाषा के समतुल्य मानी जा सकती हैं जबकि शेष भाषा व्यवहार अर्पाप्त या अपूर्ण भाषा का ही सूचक हैं । सर्वप्रथम उन्होंने पर्याप्त भाषा की सत्य और असत्य ऐसी दो कोटियाँ स्थापित कीं । उनके अनुसार अपर्याप्त की दो कोटियाँ होती हैं-(१) सत्य - मृषा (मिश्र) और (२) असत्य - अमृषा । 131 1 सत्य भाषा-वे कथन जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादक हैं, सत्य कहलाते हैं । कथन और तथ्य की संवादिता या अनुरूपता ही सत्य की मूलभूत कसौटी है, जैन दार्शनिकों ने पाश्चात्य अनुभववादियों के समान ही यह स्वीकार किया है कि जो कथन तथ्य का जितना अधिक संवादी होगा, वह उतना ही अधिक सत्य माना जायेगा । यद्यपि जैन दार्शनिक कथन की सत्यता को उसकी वस्तुगत सत्यापनीयता तक ही सीमित नहीं करते हैं । वे यह भी मानते हैं कि आनुभविक सत्यापनीयता के अतिरिक्त भी कथनों में सत्यता हो सकती है। जो कथन ऐन्द्रिक अनुभवों पर निर्भर न होकर अपरोक्षानुभूति के विषय होते हैं उनकी सत्यता का निश्चय तो अपरोक्षानुभूति के विषय ही करते हैं । अपरोक्षानुभव के ऐसे अनेक स्तर हैं, जिनकी तथ्यात्मक संगति खोज पाना कठिन है । जैनदार्शनिकों ने सत्य को अनेक रूपों में देखा है । स्थानांग प्रश्न व्याकरण, प्रज्ञापना और भगवती आराधना में सत्य के दस भेद बताये गये हैं। :--- १. जनपद सत्य, २. सम्मत सत्य, ३. स्थापना सत्य, ४. नाम सत्य, ५. रूप सत्य, ६. प्रतीत्य सय, ७. व्यवहार सत्य, ८. भाव सत्य, ९. योग सत्य, १० उपमा सत्य । अकलंक ने सम्मत सत्य भाव सत्य और उपमा सत्य के स्थान पर संयोजना सत्य, देश सत्य और काल सत्य का उल्लेख किया है । भगवती आराधना में योग सत्य के स्थान पर सम्भावना सत्य का उल्लेख हुआ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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