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________________ बाहुबलि कथा का विकास एवं तद्विषयक साहित्य : एक सर्वेक्षण एवं भरत की वही कथा निबद्ध की है, जो संघदासगण ने बसुदेव हिण्डी में ।' यद्यपि वसुदेवहिण्डी की अपेक्षा "उपदेशमाला " के कथानक में अपेक्षाकृत कुछ विस्तार अधिक है, फिर भी कथानक में कोई अन्तर नहीं । यदि कुछ अन्तर है भी तो वह यही कि "उपदेशमाला " का कथानक अलंकृत शैली में है, जब कि वसुदेव हिण्डी का कथानक संक्षिप्त एवं केवल विवरणात्मक | कुछ विद्वान धर्मदासगण को संघदासगणि के समान ही महावीर का साक्षात् शिष्य मानते हैं, किन्तु वह इतिहास समर्थित नहीं है । सम्भावना यह है कि वे संघदास के समकालीन अथवा किञ्चित् पश्चात्कालीन हैं । वसुदेव हिण्डी का उत्तरार्द्ध संघदासगण की मृत्यु के बाद उन्होंने ही पूरा किया था। महाकवि रविषेण ने अपने संस्कृत, पद्मपुराण के चतुर्थ पर्व में बाहुबली का संक्षिप्त वर्णन किया है। उन्होंने बाहुबली को भरत का सौतेला भाई कहा है । उनके अनुसार बाहुबली अहंकारी थे, अतः उन्हें चकनाचूर करने के लिए भरत अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर पोदनपुर जाते हैं और बाहुबली से युद्ध करते हैं । युद्ध में अनेक प्राणियों के मारे जाने से दुखी होकर बाहुबली भरत को दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध एवं बाहुयुद्ध करने को प्रेरित करते हैं, जिसे भरत स्वीकार कर लेते हैं किन्तु उनमें पराजित कोकर भरत बाहुबली पर चरत्न छोड़ते हैं । चरमशरीरी होने के कारण वह चक्र बाहुबली का कुछ भी न विगाड़ पाता है । किन्तु भरत का यह अमर्यादित कृत्य बाहुबली को संसार के भोगों से विरक्त बना देता है । वे तत्काल ही दीक्षा लेकर कठोर तपस्या कर मोक्ष लाभ करते हैं । । आचार्य रविषेण का रचनाकाल उनकी एक प्रशस्ति के अनुसार वि० सं० ७३४ सिद्ध होता है । इनके व्यक्तिगत जीवन-परिचय की जानकारी के लिए सामग्री अनुपलब्ध है । इनके नाम के साथ सेन शब्द संयुक्त रहने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे सेनगण-परम्परा के आचार्य रहे होंगे । ६ रविषेण की एकमात्र कृति पद्मपुराण ही कृत पउमचरियं है । उक्त पद्मपुराण जैन संस्कृत ही, साथ ही वह संस्कृत में दि० जैन परम्परा की ग्रन्थरत्न है । १. २. ३. T. ५. ६. दे० वही, १२३।१८१ तथा भूमिका पृ १९-२० । दे० पद्मपुराण प्रस्तावना, पृ० १९ । ७. दे० वही, प्रस्तावना, पृ० २२ । ६ Jain Education International 89 उपलब्ध है । इसका मूलाधार विमलसूरिसाहित्य का आद्य महाकाव्य तो है रामकथा का भी सर्वप्रथम लिखित दे० उपदेशमाला, पृ० ८०-९५ । दे० वसुदेव हिण्डि - प्रास्ताविक, पृ० ५ । भारतीय ज्ञानपीठ (काशी १९५८-५९) से तीन भागों में प्रकाशित । दे० पद्मपुराण, पर्व ४।६७-७७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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