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ऋग्वेद की कुछ सामाजिक-आर्थिक प्रवृत्तियाँ
83 ऋग्वेद में ईश्वर या देवता के विरोधियों के लिए घोर घृणा अभिव्यक्त हुई है ।९५ उन लोगों ने ईश्वर विहीनता को वस्तुतः दुष्टों की दुष्टता माना है ।१६ समाज में विश्वास था कि वशिष्ठ किसी की भी अवहेलना नहीं करता, किसी को भी दृष्टि से ओझल नहीं रखता ।९७ देवता का लोगों की मदद के लिए आह्वान किया जाता था९८ तथा लोगों के विचार भी देवताओं के प्रति अभिव्यक्त होते थे ।९९ देवताओं से यह कहा जाता था कि वे दुश्मनों का नाश करें तथा स्तुति नहीं करनेवालों को अभिशप्त करें।१०० इस बात पर जोर दिया जाता था कि ईश्वरवादी अनीश्वरवादी को दबोच लेता है।०१ तथा पूजक अपूजकों के भोजन में हिस्सा बांटकर खा लेता है ।१०२ यह कहा गया है कि ईश्वर के स्तुतिगायकों को धन दिया जाना चाहिए, भले ही वह अच्छा हो या बुरा । १०3 धन से स्वर्ग मिलने की बात का भी उल्लेख है । १०४ यह भी कहा गया है कि वेदिका का निर्माण लोगों ने देवताओं के लिए किया है, ठीक उसी तरह जिस तरह कोई रुचिसंपन्न महिला अपने पति के लिए अपने को सजाती है । १०५ यह ध्यातव्य है कि ऋग्वेद में इन्द्र की मूर्ति का विनिमय-साधन के रूप में उल्लेख१०६ देवताओं की विकास-कहानी में महत्त्वपूर्ण कदम है। देवताओं के प्रति उपर्युक्त समर्पण का प्रमाण निम्नलिखित है :----
"जो कुछ खुला है वह उसको ढंकता है, जो बीमार है वह उसकी दवा करता है,
अंधा देखता है, पंगु चलता है"।१०७ ।। इससे लोगों की मानसिकता का संकेत मिलता है। इसमें सामाजिक समस्याओं से संबंधित चिंतन-प्रक्रियाओं को देखने का अवसर प्राप्त होता है। इसमें यह स्पष्ट है कि असंभव भी देवताओं की कृपा से संभव था, ऐसा विश्वास था। निष्कर्ष है कि उस काल में चितन को निजी संपत्तिवालों के द्वारा उसके औचित्य-स्थापन के लिए प्रयोग में लाया गया
९५.
९७. ९८. ९९. १००. १०१. १०२. १०३. १०४. १०५. १०६. १०७.
VI. 49.15; VIII. 39.21 वही VIII. 59.3 VIII. 42.6 VIII. 17.13 III. 18.2 II. 26.1; III. 1.16 II. 26.1 VII. 97.10 VIII. 13.5 IV. 3.2 IV. 25.10 VIII. 68-2
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