SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 78 Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 उल्लेख है।४० ले किन दूसरी ओर, दुर्बल मस्तिष्कवाले लोग भी थे ।४१ शक्ति, सौन्दर्य तथा प्रार्थना से हीन लोगों को ऊँची निगाह से नहीं देखा जाता था, उनके पास बैठना भी अच्छा नहीं माना जाता था।२ इसका अभिप्राय है कि उस काल में दुर्बलों को खराब दृष्टि से देखा जाता था, उनको दया का पात्र माना जाता था। दूसरी ओर समाज में ऋण के प्रचलन के कारण उत्पन्न ऋणग्रस्तता-जनित विषम परिस्थितियों का भी वर्णन है।४ इसका अर्थ है कि ऋण देकर उसके सूद में किसी को उसकी निजी संपत्ति से वंचित किये जाने की विधि भी अच्छी तरह विकासत हो गयी थी। इतना ही नहीं, दासत्ववृत्ति मनुष्य में कैसे थोपी जाय, यह भी स्पष्ट रूप से सोचा जा चुका था। उपहार में दासों के दिये जाने की प्रथा थी४५, सेवकों का अस्तित्व था ।४६ मनुष्य पर मनुष्य के इस स्वामित्व की पद्धति को देखकर ही किसी ऋग्वेदकालीन व्यक्ति ने यह प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि मानव जाति के लोग नारी-शोषक होते हैं ।४७ ऊपर की सारी परिस्थितियाँ ऋग्वेद की रचनाकालीन सामाजिक-आर्थिक प्रवृत्तियों की ओर संकेत करती हैं । ___ ऋग्वेदकाल में संपत्ति के अर्जन के प्रति बलवती इच्छाओं के प्रमाण मिलते हैं । इस ग्रंथ में सामान्यतः धन, गौरव, प्राचुर्य,४८ संतान, भोजन, शक्ति, आशीर्वाद तथा सुखी घर,४९ संपन्न गृहस्थी तथा वीतहव्य संपन्नता५०, पर्याप्त धन, तथा शीलवती संतान, सर्वोत्तम कोष, धन में वृद्धि५२. घोड़ों के साथ ऐश्वर्य५३, पर्याप्त भूमि१४, एवं उपजाऊ कृषि-क्षेत्र५५ ४०. V. 348 ४१. VIII. 90.16 ४२. VII. 4.6 ४३. II. 24.13 ४४. IV. 3.13 रामशरण शर्मा का कहना है कि ऋण का अर्थ पास्परिक आदान-प्रदान से है। ऊपर, पृ० 99 III. 46 32, VIII. 56.3 देखिये एमली बेनवेनिस्ते, इण्डो यूरोपियन लैंग्वेज एण्ड सोसाइटी, लंदन, 1973, ऋग्वेद में दासियों के दिये जाने का उल्लेख है, दासों को नहीं। लेकिन यह ज्ञातव्य है कि एक बार प्रारम्भ हो जाने पर कोई अपनी भूमिका निभाते हुए अस्तित्व धारण करती है। ४६. VII. 68.7, 73.3 ४७. III. 18.1 ४८. II. 2.12 ४९. II. 19.8 VI. 15.3 VI. 50.6 ५२. II. 21.6 ५३. VIII. 109.2 ४. IX.91.6 ५५. ___IV. 41.6 रामशरण शर्मा का कहना है कि इस समय सामुहिक भू-स्वामित्व था—एक वंश के लोग एक साथ थे । पृ० 99 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy