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ॠग्वेद की कुछ सामाजिक-आर्थिक प्रवृत्तियाँ
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सारे तथ्यों से यह
मांग संपस राजन्यों के लिए ब्राह्मणों द्वारा अग्नि से की गयी है । २१ पुरोहितों ने देवताओं से राजवर्ग के लोगों में संयुक्त स्तुति लेने के लिए पधारने का आग्रह भी किया है। एक पुरोहित ने यह कहा है कि कैसे किसी राजा ने अपनी शक्ति से उसको उसके शत्रुओं की सामग्री का स्थायी स्वामी बना दिया । " संपन्न तथा उच्च कुल-सम्भूत राजन्य अपनी स्तुति पर ध्यान देते थे ३२ तथा वे स्तुति गायकों के पक्षधर थे 33 लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि सभी राजन्य परम्परागत आदर्शों का पालन नहीं करते थे । ४ ऊपर के संकेत मिलता है कि उच्च कुलोत्पन्न एवं संपन्न राजन्य निस्सन्देह सुविधाजनक स्थिति में थे या वे इस धारणा से प्रभावित थे कि उन्हें भोग करना है । राजन्यों में भी कुल का महत्त्व था तथा सपन्नता- विपन्नता के कारण उनकी सामाजिक स्थिति का मूल्य था । इसका अभिप्राय यह हुआ कि यद्यपि ब्राह्मण और राजन्य अपने पारस्परिक हितों को साधने के लिए एकजुट थे, उच्च ब्राह्मण तथा संपन्न राजन्यवाली धारणा स्पष्टतर होती जा रही थी अर्थात् उपर्युक्त दोनों समूहों में उच्च तथा निम्न की धारणा ने समाज में विभिन्न सतहों की संरचना की और परिणामस्वरूप सामाजिक-आर्थिक तनाव का पदार्पण भी हुआ ।
ऋग्वेद में विभिन्न स्तर के आर्थिक समूहों की चर्चा है, जैसे, धनी, निर्धन, दुर्बल, कुशल, आदि । कुछ लोग पर्याप्त संपन्न तथा कुशल थे तथा भौतिक साधनों को एकत्र करने के लिए महत्त्वाकांक्षी भी । ३६ ऐसी मान्यता विकसित हो चुकी थी कि शक्तिशाली सब कुछ पा जायेगा । 3 ऐसा वर्णन है कि इधर-उधर प्रयास करनेवाले कुशल लोग अधिकाधिक पाते थे, वे भोजन के साथ साथ उत्तम एवं असाधारण रसों पर भी स्वामित्व रखते थे | इस काल में कुछ लोगों को उच्च स्तरीय भोजन की संपन्नता प्राप्त थी । ३९ ऋग्वेद में सुन्दर गायों के लिए अपने समर्थकों की सहायता से लड़ाई करनेवाले धनियों का
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VI. 8.6
VIII. 26.1
IV. 50.7
II. 2.11
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II. 2.13 रामशरण शर्मा 'आस्पेक्ट्स ऑफ
पृ० 265 - 6, ऋग्वेद में वैश्य तथा शूद्र
क्षत्रिय के 9 बार,
मात्र
ब्राह्मण शब्द के 15 बार, एक-एक बार चर्चित होने के आधार पर ऋग्वेद काल की वर्णमुक्त राजनीतिक अवस्था की ओर संकेत करते हैं ।
VIII. 104.13 क्षत्रियम् मिथुया धारयन्तम्
IX. 80.5
ऊपर
VII. 32.14 देखिये VII. 32-11-12 लट का माल
IX. 46.4
VIII, 26,24
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