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________________ युक्त्यानुशासन का सर्वोदयतीर्थं मेरी समझ में इसी समस्त के समाधान के लिए अनेकान्त दृष्टि का आविष्कार किया गया, जिसकी मुख्य बातें निम्न प्रकार ही हैं - (क) राग और द्वेषजन्य संस्कारों से ऊपर उठकर तेजस्वी माध्यस्थ भाव रखना : जब तक इस प्रकार के तटस्थ एवं माध्यस्थ भाव का पूर्ण विकास न हो, तब तक उस लक्ष्य की ओर ध्यान रखकर केवल सत्य की जिज्ञासा रखना । (ग) विरोधी पक्ष के प्रति आदर रखकर उसके भी सत्यांश को ग्रहण करना । (घ ) अपने या विरोधी के पक्ष में जहाँ तक ठीक जँचे उनका समन्वय करना । 67 इस प्रकार अनेकान्त दृष्टि के द्वारा हम एक नयी " समाज - मीमांसा" और नया " समाज- तर्क" के आविष्कार की ओर बढ़ सकते हैं और उनके द्वारा समाज में समन्वय लाया जा सकता है । इसमें सप्तभंगी और नय के उपकरण होना चाहिए। यह ठीक है कि चूंकि दार्शनिक और आध्यात्मिक साधना में ही अनेकान्त दृष्टि आयी, इसलिए उन्हीं क्षेत्रों में इन उपकरणों के उपयोग हुए । किन्तु अब समाज - साधना में इनके उपयोग को आगे बढ़ाना चाहिए । यही अनेकान्त का फलितवाद या व्यावहारिक उपयोग माना जायगा । यही है जीवित अनेकांत । अनेकान्त दृष्टि केवल तत्वज्ञान तक ही सोभित नहीं रहना चाहिए | वस्तुत: अनेकांत एक जीवन-दर्शन है । यह सब दिशाओं से, सब ओर से खुला एक मानस-चक्षु है । ज्ञान, विचार और आचरण किसी भी क्षेत्र में यह न केवल संकीर्णं दृष्टि का निषेध करता है, बल्कि अधिक से अधिक दृष्टिकोणों को सहानुभूति के साथ आत्मसात करने का प्रयास करता है । इसी तरह विश्व के संबंध में सामान्यगामिनी और विशेषगामिनी, दो भिन्न दृष्टियों में समन्वय हो सकता है । यों दोनों बाद अंत में शून्यता तथा स्वानुभवगम्यता तक पहुँचे । हाँ, दोनों के लक्ष्य भिन्न होने के कारण वे दोनों परस्पर कराते हुए दीखते हैं । उसी प्रकार भेदवाद - अभेदवाद के एकांत दृष्टिकोण से ही सत्कार्यवाद एवं असत्कार्यवाद का जन्म हुआ । इसी प्रकार सद्वाद असद्वाद, निर्वचनीयअनिर्वचनीयवाद हेतु - अहेतुवाद आदि के द्वन्द्वों का भी अनेकान्त दृष्टि से समन्वय किया जा सकता है । यदि हम पूछें कि “ इन सब में क्या कोई तथ्यांश नहीं है या है" या " किसी-किसी में तथ्यांश है, या सभी पूर्ण सत्य हैं ?" और अन्तर्मुख होकर विचार करें तो विरोधों का भी समाधान हो जायगा । यही दृष्टि अनेकान्त दृष्टि है । जिसमें जिस हद तक सत्यांश है, उसे स्वीकार कर सभी सत्यांशों को विचार-सूत्र में पिरोकर एक अविरोधी माला बनायी जा सकती है । अतः अनेकान्त के प्रकाश में हमें यह समझना होगा कि प्रतीति चाहे अभेदगामिनी हो या भेदगामिनी, निर्वचनीय या अनिर्वचनीय, हेतुवादी या अहेतुवादी - सभी वास्तविक हैं । प्रत्येक प्रतीति की वास्तविकता उसके अपने विषय तक तो है ही, पर जब वह विरुद्ध दिखाई देनेवाली दूसरी प्रतीति के विषय की अयथार्थता दिखाने लगती है तो वह खुद भी अवास्तविक बन जाती है । इसलिए वे दोनों अपने स्थानों पर रहकर अविरोधी भाव से प्रकाशित हो सकें और वे सब मिलकर वस्तु का पूर्णस्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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