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________________ Vatshali Institute Research Bulletin No. 3 प्राकृत्त की पाण्डुलिपियों में ग्रन्थ की कथा इस प्रकार है चन्द्रावतीमगरी में महाराजा वीरधवल थे। उनकी दो रानियां थीं-चम्पकमाला एवं कनकवती। चम्पकमाला पटरानी थी, अत: कनकवती उससे द्वेष रखती थी। एक दिन राजा वीरधवल नगर के श्रेष्ठिपुत्र गुणवर्मा की पितृभक्ति देखकर स्वयं निःसन्तान होने से बहुत दुखी हुए। अपनी रानियों से वार्तालाप कर उन्होंने देव-आराधना की। चक्रेश्वरी मलयादेवी के वरदान से चम्पकमाला के एक पुत्र एवं एक पुत्री का जन्म हुआ, जिनके नाम मलयकेतु और मलयसुन्दरी रखे गये । ___ यथासमय पृथ्वी स्थानपुर के राजकुमार महाबल और मलयसुन्दरी में प्रणय हो गया। किन्तु सौतेली माता कनकवती के कपट के कारण दोनों के मिलन में अनेक बाधाएँ आती रहीं। कठिन परीक्षाओं में भी सफलता प्राप्त कर एवं अनेक कष्टों को सहते हुए महाबल और मलयसुन्दरी अपने घर पहुंचे । कनकवती चतुराई से मलयसुन्दरी की ससुराल भी पहुँच गयी और अपने प्रपंच से सगर्भा मलयसुन्दरी को देश-निकाला दिला दिया। महाबल उसे खोजता फिरा । इस अवधि में मलयसुन्दरी के सतीत्व पर कई संकट आये । बलसार सार्थवाह एवं कन्दर्प राजा के कुचक्रों से अपने शील को बचाती हुई मलयसुन्दरी ने जंगल में एक पुत्र को जन्म दिया। मलयसुन्दरी और अपने पुत्र को पाने के लिए महाबल ने कई चमत्कारी एवं दुस्साहसपूर्ण कार्य किये। अन्त में सब स्वजन मिल जाते हैं । तब इन पात्रों का पूर्वजन्म कहा जाता है। इस मूल कथा में ८-१० अवान्तर कथाएं सम्मिलित हैं। व्यन्तर, विद्याधर, विभिन्न विद्याएँ, तन्त्र-मन्त्र आदि के प्रयोगों से कथा के पात्र अपने कार्य सिद्ध करते हैं। कर्मफल के परिणामों से नायक-नायिका का चरित्र विकसित होता है। नायक के साहस और नायिका की शोलदृढ़ता से कथा जीवन्त बनी है । सन्तान द्वारा अपने स्वजनों की रक्षा करना कथा का मुख्य विषय है। पति-पत्नी के अटूट प्रेम का दिग्दर्शन कथा के माध्यम से प्रस्तुत करने में कथाकार पूर्ण सफल रहा है । इस तरह मध्ययुग के इतिहास और संस्कृति के सम्बन्ध में यह कथा पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करती है । कथा की कथानकरूढ़ियों और संरचना के आधार पर मलयसुन्दरीचरियं की रयणचूडरायचरियं से पर्याप्त समानता है । हो सकता है कि अन्तःसाक्ष्य के मूल्यांकन द्वारा मलयसुन्दरी कथा आचार्य नेमिचन्द्र सूरि की ही रचना सिद्ध हो । ग्रन्थ के सम्पादन-कार्य की समाप्ति पर ही इस सम्बन्ध में कुछ निर्णयात्मक रूप से कहा जा सकेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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