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आचार्य विद्यानन्द का एक विशिष्ट चिन्तन
39 प्रेरणा के बिना कार्य किसी का प्रेरक नहीं होता है, इसलिए कार्य और प्रेरणा का योग अर्थात् सम्बन्ध नियोग कहलाता है।'
प्रेरणाकार्य सम्बन्ध नियोग :-कार्य और प्रेरणा, ये दोनों परस्पर अविनाभूत और तादात्म्य रूप से प्रतीत होते हैं, इसलिए इन दोनों का समुदाय ही नियोग कहलाता है, ऐसा दूसरे नियोगवादी नियोग का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं।
___कार्य प्रेरणा, स्वभाव, विनिर्मुक्त नियोग :-नियोगवादियों की एक अन्य परम्परानुसार कार्य और प्रेरणा से विनिर्मुक्त स्वभाव ही नियोग का स्वरूप है। इनका मत है कि एक ब्रह्म आम्नाय (वेद) नित्य सिद्ध है। उस नित्य ब्रह्म के सिद्ध होने से नियोग उस नित्य ब्रह्म का कार्य नहीं हैं, फिर वह प्रेरक कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि जो कार्य होता है, वही अपनी निष्पत्ति के लिए प्रेरक होता है। ब्रह्म नित्य है, इसलिए कार्य नहीं होने के कारण (जो कार्य होता है वह नित्य न होकर अनित्य होता है) वह प्रेरक भी नहीं हो सकता है।
यन्त्रारूढ़ नियोग :-यन्त्रारूढ़ अर्थात् यन्त्रों पर आरूढ़ होने की तरह यज्ञादि कार्य में आरूढ़ हो जाने को नियोग कहनेवाले नियोगवादियों का कथन है कि स्वर्गादि की अभिलाषा रखनेवाला व्यक्ति नियोग (प्रवर्तक वाक्य) के होने पर जिस यज्ञ कार्य में नियुक्त है, उसका वहाँ पर अपने को आरूढ़ मानता हुआ प्रवृत्त होना नियोग है।
भोग्य रूप नियोग :-कुछ प्रभाकर परम्परावादी नियोग को भोग्य रूप मानते हैं। उनका मत है कि यज्ञादि कार्य करने के बाद में भोगनेवाली अवस्था भोग्य कहलाती है और उसी को नियोग कहते हैं।"
पुरुषरूपनियोग .-पुरुष (आत्मा) को ही नियोग स्वीकार करनेवालों का मत है कि 'यह मेरा कार्य है'-इस प्रकार पुरुष सदैव मानता है। उस पुरुष का कार्य विशिष्ट ही नियोग है और यही इसकी वाच्यता है ।
१. (क) अष्टसहस्री (निर्णय सागर), पृ० ६, कारिका ८ ।
(ख) तत्वार्थ श्लोकवार्तिक, प्रथम अध्याय, पृ० २६१, का० १०२ २. (क) वही, का ९ । (ख) वही, का० १०३
सिद्धमेकं यतो ब्रह्म गतमाम्नायतः सदा । सिद्धत्वेन न तत्कार्य प्रेरकं कुत एवतत् ॥
अष्टसहस्री, पृ०६। ४. वही। ५. वही, पृ० ६, श्लोक १२-१५ । ६. वही, पृ० ६, श्लोक १६-१७ ।
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