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वज्जिगण राज्यः पालि साहित्य के आलोक में
डा० नन्द किशोर प्रसाद प्राचीन भारत के ऐतिहासिक स्रोतों में पालि साहित्य का एक विशिष्ट स्थान है । बुद्धकालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि स्थितियों का इससे आधिकारिक परिचय मिलता है। जहाँ तक राजनीतिक स्थिति का प्रश्न है, तत्कालीन भारत में अंग, मगध, काशो, कोशल, वज्जि, मल्ल, चेति आदि सोलह महाजनपद विख्यात थे। इन जनपदों में से मगध का सर्वाधिक महत्त्व था। वज्जि जनपद में मिथिला के विदेह एवं वैशाली के लिच्छवि सम्मिलित थे। यह जनपद भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। वज्जि जनपद की राजधानी वैशाली थी। वज्जि जनपद के नाम पर ही यहाँ के निवासियों को वज्जि कहा जाता था। इनका एक और प्रमुख नाम लिच्छवि था। पालि साहित्य में लिच्छवि, वज्जि एवं वैशाली की जो व्युत्पत्तिमूलक कथा उपलब्ध है, वह अत्यन्त रोचक है :
वाराणसी की महारानी ने एक मांस-पिण्ड को जन्म दिया। इससे अपयश होने की आशंका से महारानी ने सेविकाओं द्वारा इसे पिटारी में बन्द करवा कर चुपके से गगा में फेंकवा दिया। देवताओं ने इसे संरक्षण प्रदान किया और "वाराणसी की महारानी से उत्पन्न" ऐसा स्वर्णपट्ट पर अंकित कर पिटारी में बाँध दिया। गोपालकों के साथ गंगा के किनारे रहनेवाले एक तपस्वी की दृष्टि इस पिटारी पर पड़ी। इसे अपने आश्रम में लाकर वे भ्र ण का पालन करने लगे । अन्त में भ्रूण ने एक बच्चा और एक बच्ची का रूप धारण किया। शिशुओं को देखते ही तपस्वी के हृदय में वात्सल्य उमड़ पड़ा, जिससे उनके अंगूठे से दूध की धारा फूट पड़ी। इसे पान कराकर वे शिशुओं का पोषण करने लगे। उनके पेट की त्वचा पारदर्शक होने से बच्चे जो कुछ भी खाते थे, वह स्पष्ट दिखलाई पड़ता था अथवा उनके पेट की त्वचा बहुत पतली होने के कारण पेट एवं भोजन एक साथ सिला हुआ मालूम पड़ता था। इस प्रकार उनके त्वचा-रहित (निच्छवि) अथवा पतली त्वचा (लीनच्छवि) होने के कारण उनका नाम लिच्छवि पड़ा। शिशुओं को पोसने में तपस्वी को कठिनाई होते देख गोपालकों ने उन्हें पोसने हेतु उनसे माँगा। उनके बड़े होने पर आपस
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अं० नि०, भाग-१, पृ० १९७, भाग-३, पृ० ३४९-५०, ३५३-५७ रायस डविड्स, बुद्धिस्ट इंडिया, पृ० १३ । म० नि० अ०, भाग-१, पृ० ३९६-४००, खुद्दक पाठ अ०, पृ० १८७-८९ महावग्ग, पृ० २८६; खुद्दकपाठ अ०, पृ० १९०, सुत्तनिपात अ०, भाग-२, पृ० ३-६ ।
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