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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 3 वररुचि ने अपभ्रंश को भिन्न प्राकृत स्वीकार नहीं किया है। कुछ अलंकार. शास्त्रियों ने इसे देशभाषित अर्थात् जनसाधारण की बोलचाल की भाषा कहा है। दंडी ने अपने काव्यादर्श में अपभ्रश से तात्पर्य काव्यान्तर्गत आकारों तथा इसी कोटि के अन्य लोगों की भाषा बतायी है । यह साहित्य की भाषा नहीं थी। प्राकृत के अन्तर्गत दंडी महाराष्ट्री, शौरसेनी, गौडी तथा लाटी को स्वीकार करते हैं। 'गौडी' स्पष्टतया मागधी का ही दूसरा नाम था । 'लाटो' से उनका क्या तात्पर्य है, यह स्पष्ट नहीं होता। इसप्रकार वररुचि और दंडी के अनुसार प्राकृतों के चार वर्ग (महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी तथा पैशाची) तथा आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार सात (महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, अर्धमागधी अथवा आर्ष, पैशाची और चूलिका पैशाची तथा अपभ्रंश) हैं। इन भाषाओं के मूल का जहाँतक प्रश्न है, इस सम्बन्ध में दो-तीन सिद्धान्त सामने आते हैं। इनमें एक तो भारतीय वैयाकरणों का है, जो प्राकृत का मूल शास्त्रीय संस्कृत को ही स्वीकार करते हैं। दूसरा विचार उन प्राच्च तथा पाश्चात्य विद्वानों का है, जो शिलालेखी प्राकृत के माध्यम से वेदकालीन प्राचीन अथवा प्रारम्भिक प्राकृत (२००० ई० पू० से ५०० ई० पू. तक) से आयी हुई, इसे स्वीकार करते हैं, जो वैदिक भाषा से भी पूर्व अथवा समानान्तर वर्तमान थी। ये विद्वान् वैदिक संस्कृत (१५०० ई० पू०) को उसी प्रारम्भिक प्राकृत से विकसित हुई मानते हैं। शिलालेखी प्राकृत (५०० ई० पू० से १०० ई०) अपने पालीरूप में अविच्छिन्न रूप से वर्तमान थी। वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत और शिलालेखी प्राकृत से साहित्यिक प्राकृतें (अपभ्रश को छोड़कर) विकसित हुईं। ये प्राकृतें ईसा की प्रथम शताब्दी से पाँचवीं तक बोलचाल की भाषा के रूप में रहों। अपभ्रंश की शृंखला ई० की पांचवीं शताब्दी से दसवीं तक अविच्छिन्न रही। यद्यपि बाद तक भी इसमें रचनाएँ होती रहीं। इस प्रकार इन विद्वानों के विचार से प्रारम्भ में वेदकालीन अनेक भाषाएँ (प्रारम्भिक प्राकृतें) थीं, जिनसे शिलालेखी प्राकृत विकसित हुई तथा उससे साहित्यिक प्राकृतें निकलीं। इन प्राकृतों का काल ईसा की पांचवीं-छठी शताब्दी कहा जा सकता है, जिससमय ये बोल-चाल की भाषा के रूप में प्रचलित थीं। इसी काल में महाकवि शूद्रक ने अपना प्रसिद्ध संस्कृत-नाटक मृच्छकटिक लिखा, जिसमें उसने प्रायः सभी प्राकृतों के उदाहरण बड़ी सुन्दरता से प्रस्तुत किये हैं। उपर्युक्त दोनों ही बिचारों में जो भी सही हो, किन्तु, यह तो निर्विवाद है कि प्राकृतें निश्चित रूप से संस्कृतों ( वैदिक तथा साहित्यिक ) से प्रभावित हुई हैं और इसका सबसे सुन्दर सबल कारण यह है कि बहुत से संस्कृत शब्द ज्यों के त्यों अपने अपरिवर्तित रूप में साहित्यिक प्राकृत में आ गये हैं। इस प्रकार प्राकृतों को यदि संस्कृतों से व्युत्पन्न नहीं भी माना जाय, फिर भी उनपर संस्कृतों की गहरी छाप तो स्पष्ट देखी जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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