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________________ प्राकृत : एक अवलोकन डॉ० देवनारायण शर्मा 'प्राकृत' शब्द प्रकृतिमूलक है, जिसका ( प्रकृति का ) अर्थ भाषापरिप्रेक्ष्य में प्रजा, साधारणजन आदि होना चाहिए। इस प्रकार साधारणजन की भाषा को ही प्राकृत कहा गया है । आचार्य हेमचन्द्र ने यदि प्रकृति का अर्थ संस्कृत किया है, तो उनका यह अर्थ शब्द-शास्त्र के संदर्भ में उपयुक्त है, क्योंकि वहाँ प्राकृत शब्दों की सिद्धि संस्कृत शब्दों को मूल माने विना संभव ही नहीं है । वस्तुतः प्राकृतभाषा में संस्कृतसदृश शब्दों का भी प्रयोग हुआ है तथा विकृत अपभ्रंश शब्दों का भी । इस कारण इन दोनों प्रकार के शब्दों पर अनुशासन क्रमशः संस्कृत तथा प्राकृत व्याकरणों का है । प्राकृत भाषा में प्रकृति, प्रत्यय, लिंग, कारक, समास और संज्ञा आदि व्याकरणसम्बन्धी बातें संस्कृत की तरह ही जाननी चाहिए। इनमें प्रकृति के अन्तर्गत नाम, धातु, अव्यय, उपसर्ग आदि; प्रत्यय में सि, औ, जस् तत्त्व तिव् तस् अन्ति आदि; लिंग में पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग; कारक में कर्त्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध और और अधिकरण; समास में अव्ययीभाव तत्पुरुष, द्वन्द्व कर्मधारय, द्विगु और बहुव्रीहि तथा संज्ञा में स्वर, व्यजन, लघु, गुरु आदि आते हैं । औ, ङ, ञ, श, ष, विसर्ग और प्लुत अनुसार ही हैं । अपने-अपने वर्ग वाले प्राकृत में केवल ह्रस्व-दीर्घ ऋ तथा ऌ, ऐ, को छोड़कर अन्य वर्ण समुदाय संस्कृत - व्याकरणों के अक्षरों से संयुक्त ङ और न भी प्राकृत में मिलते हैं और औ वर्ण भी प्राकृत में प्रयुक्त होते हैं । किन्तु इसमें स्वर - रहित व्यञ्जन, द्विवचन तथा चतुर्थी विभक्ति का बहुवचन नहीं होता । । कुछ आचार्यों' के मत से तो ए प्राकृत व्याकरण में आदि से अन्त तक 'बहुल' का शासन हम पाते हैं, अर्थात् इसमें व्याकरण के नियम कहीं लगते, कहीं नहीं लगते, कहीं विकल्प से लगते और कहीं पर कुछ और ही हो जाता है । तात्पर्य जिस कार्य का निर्देश सूत्र ने नहीं किया, वह भी हम पाते हैं । आर्ष प्राकृत में व्याकरण के सभी नियम विकल्प से लगते हैं । प्राकृत के अन्तर्गत वैयाकरणों ने कई भाषाओं को लिया है। इनमें सबसे प्राचीन 'प्राकृत प्रकाश' के रचयिता वररुचि ने चार प्राकृतों का नाम गिनाया है - महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची । जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र ने तीन और नाम जोड़ दिये हैंआर्ष (अर्धमागधी), चूलिका पैशाची और अपभ्रंश । बाद के वैयाकरणों ने सामान्यतया हेमचन्द्र का ही अनुकरण किया है । १. आचार्य श्री हेमचन्द्र, स्वोपज्ञ, शब्दानुशासन वृत्ति ८|१|१ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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