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वैशाली में पड़ाव
तिब्बती भिक्षु धर्मस्वामी (तेरहवीं शताब्दी) वहाँ से प्रायः छः ठहरावों (stages) को दूरी पर वैशाली (यणस्-पा-कान्) का निर्जन सीमान्त है। वही ऋषि शीर्ष-पर्वत की श्रेणी भी पड़ती है जिसे "उन्नत शिखर"१ या "बृहद् शीर्ष"२ भी कहा जाता है। केवल दुर्दान्त दस्युओं के अतिरिक्त कोई भी (वैशाली) शहर की पहुँच के भीतर ही होगा। अपने सर्वाधिक संकीर्ण भाग में वैशाली का राज्य छः ठहरावों में (पूरा किया जा सकता) है और अपने सर्वाधिक विस्तीर्ण भाग में आठ ठहरावों में । वहाँ आर्यतारा की एक चमत्कारिक प्रस्तर मूत्ति है जिसका शिरोभाग एवं धड़ बायीं ओर मुड़ा हुआ है, पैर सीधे जमे हुए हैं, तथा दायां पैर बगल की ओर मुड़ा हुआ है । दायां हाथ वरमुद्रा में है और बायां हाँथ हृदय के सामने त्रिरत्न-चिह्न बना रहा है। मूत्ति महती कृपामयी रूप में प्रख्यात है; देवी के रूप का दर्शन मात्र, भक्तों को आपदाओं से मुक्ति दिला सकता है।
___जब वे (धर्मस्वामिन्) वैशाली नगर पहुँचे उन्हें बताया गया कि वहाँ के निवासी बड़ी हलचल भरी स्थिति में हैं, तथा आतंक ग्रस्त हैं क्योंकि तुरुक" आक्रान्ताओं को टुकड़ियों (के आने) की अफवाहें हैं।
उसी रात धर्मस्वामिन् ने स्वप्न में वज्रासन का प्रक्षेत्र देखा तथा ज्येष्ठ छंग्-लो-त्सबा से बातें की अब गुरु कृपा को स्मृति में स्वतः धर्मस्वामिन् रचित श्लोकों को "अन्नु-प्र-सालाले सु ब् स्क्यणस्-पा'इ ठन्" से उद्धृत किया जाता है।
“यद्यपि साथी अनेक हैं और तुरुष्क फौज की विभीषिका की परवाह किए बगैर, तथा अरने भैंसे के खतरे से उदासीन । गुरु की चमत्कारिक शक्तियों से मैं वज्रासन को निर्विघ्न देखता हूँ,
यह महान् धर्म स्वामिन्, उपाध्याय की कृपा का फल है।" १. त्से-म् थोन् २. म् गो-बो छे ३. शि स्क्यिद्-क्यि-जग्-प; शब्दानुवाद -"मृत्यु आनन्द है" अर्थात् “उनके द्वारा
विजित होने से मौत बेहतर है।" ४. र ण-ब्योन् ५. म छोग्-स् ब्यिम् -तिब्बती में 'वरा मुद्रा' और 'बरदा मुद्रा' दोनों चलता है । ६. य ण् स्-प्-कन् ७. ग र-लो ग् .
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