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________________ 156 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 पद्मपुराण--. राम के वनगमन का पता जब सामन्तों को लगा, वे प्रातःकाल होने से पूर्व जब कुछ अँधेरा था, वेग से घोड़े दौड़ाकर मन्थर' गति से चलनेवाले राम के पास जा पहुँचे । अत्यन्त निर्मल चित्त के धारक सामन्त लोग सोता की इस प्रकार स्तुति करने लगे कि “हम लोग इसकी कृपा से ही राजपुत्रों को प्राप्त कर सके हैं। यदि यह इनके साथ धीरे-धीरे नहीं चलती तो हप पवन के समान वेगशाली राजपुत्रों को किस प्रकार प्राप्त कर सकते थे।" ___ मनुष्यों में उत्तम राम और लक्ष्मण सोता की गति को ध्यान में रखकर गव्यूति प्रमाण (एक कोस अथवा दो कोस) मार्ग को ही सुखपूर्वक तय कर पाते थे। वे पृथ्वी मण्डल पर नाना प्रकार के धान्य, कमलों से सुशोभित सरोवर तथा गगनचुम्बी वृक्षों को देखते हुए वनमार्ग की ओर आगे बढ़ रहे थे। अयोध्या से निकलकर वे पारियात्र अटवी में पहुंचे, जो कि सिंह और हस्तिसमूह के उच्च शब्दों से भयंकर हो रही थी । उस अटवी में बड़े-बड़े वृक्षों से कृष्ण पक्ष की निशा के समान घोर अन्धकार व्याप्त था। वहीं जिसके किनारे अनेक शबर अर्थात् भील रहते थे । ऐसी एक शर्वरी नाम की नदी थी। इस नदी को देखकर राम ने सामन्तों से कहा कि अब हारे और आपके बीच यह नदी सीमा बन गयी है, इसलिए अब आप लोग आगे बढ़ने की उत्सुकता नहीं दिखलायें । आप लोगों के लिए यह एक स्पष्ट उत्तर है कि अब आप यहाँ से लौट जाइये, मैं जाता हैं। आप लोग अपने घर सुख से रहें। इतना कहकर किसी को अपेक्षा नहीं करने वाले दोनों भाई बड़े उत्साह से उस अतिशय५ गहरी महानदी में उतर पड़े। भरत राम के पास से आये हुए लोगों को आगे कर बड़ी उत्कण्ठा से पवन के समान शीघ्रगामी घोड़ों पर सवार होकर चल पड़े। अयोध्या के तुरत बाद ही पड़ने वाली उस नदी (शर्वरो) को वृक्षों के बड़े-बड़े लट्ठों से नौका समूह को बाँधकर क्षण भर में वाहनों सहित पार हो गये । वे घोड़े को सवारी के कारण छह दिनों में हो उस स्थान पर पहुँच गये, जहां राम और लक्ष्मण सीता की मन्यर गति के कारण बहुत दिनों में पहुँच पाये थे। १. समीपं रामदेवस्य प्रापर्मन्थरगामिनः ॥ पद्म० पर्व ३२, श्लो० १६ २. पद्म पर्व ३२, श्लो० २० ३. तो सोतागतिचिन्तत्वान्मन्दमन्दं नरोत्तमौ । गव्यूतिमात्रमध्वानं सुखयोगेन जग्मतुः ॥ पद्म० ३२,२२ ४. तस्या बहुलशर्वया तुल्यध्वान्तां महानगैः । निम्नगां शर्वरीमेतौ शवराश्रित रोधसाम् ॥ पद्म० ३२,२९ ५. इत्युक्त्वा निरपेक्षौ तौ परमोत्साह सङ्गती। अवतरतुरत्यन्त गम्भीरां तां महापणाम् । पद्म० पर्व ३२, श्लो० ५२ ६. पद्म० पर्व ३१, श्लो० ११४ ७. प्रभूत दिवसप्राप्तं ताभ्यां सीताव्यपेक्षया । षभिदिनैस्तमुद्देशं भरतः प्रतिपन्नवान् ।। पद्म० ३२, ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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