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________________ 148 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 समाधिमरण के पूर्व जब उसके राजकुमार पुत्रों ने उससे पूछा कि-"हमलोगों के लिए आपका क्या आदेश हैं ?" तब उस महातपस्विनी ने कहा था--"कि जो कुछ कभी मैंने प्राप्त किया अथवा कहीं से मेरे पास जो कुछ भी आया, उस समस्त परिग्रह का मैंने मन, वचन एवं कार्य से इस प्रकार त्याग कर दिया है, जैसे मैंने उसे कभी प्राप्त ही न किया हो।" हुम्मच के १२ वीं सदी के एक शिलालेख में विदुषी पम्पादेवी का आदरपूर्वक उल्लेख किया गया है। तदनुसार वह गंग नरेश तैल तृतीय की पुत्री थी। उसके द्वारा निर्मापित एवं चित्रित चैत्यालयों के शिखरों से पृथिवी भर गई थी। उसके द्वारा मनाए गए जिन-धर्मोत्सवों के तूर्यों एवं भेरी नादों से दिग्-दिगन्त व्याप्त हो गए थे तथा जिनेन्द्र की ध्वजाओं से आकाश भर गया था। आदिनाथ का चरित्र-श्रवण ही उस पम्पादेवी के कर्णफूल, चतुर्विध-दान ही हस्त-कंकण तथा जिन-स्तवन ही उसका कण्ठहार था। इस पुण्यचरित्रा देवी ने वितिलक-जिनालय के साथ सुन्दर शासन-देवता के मन्दिर का निर्माण छने हुए पानी से केवल एक मास के भीतर निर्मित कराकर प्रतिष्ठित कराया था। पम्पादेवी स्वयं पण्डिता थी। उसने “अष्टविद्यार्चन महाभिषेक' एवं "चतुर्भक्ति" नामक दो ग्रन्थों की रचना भी की थी। __ यह सामग्री तो जैन अभिलेखों के आधार पर प्रस्तुत की गई। अब देखिए प्राचीन जैन प्रन्थ-प्रशस्तियों में उल्लिखित कुछ श्रावकों के कार्य-कलापों के इतिवृत्त । महाकवि पुष्पदन्त कृत महापुराण जसहरचरिउ एवं णायकुमारचरिउ की प्रशस्तियों से विदित होता है कि महाकवि पुष्पदन्त उनका प्रणयन कभी न कर पाते, यदि राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज तृतीय के महामन्त्री भरत ने उन्हें ससम्मान प्रश्रय एवं प्रेरणा न दी होती। महाकवि पुष्पदन्त अत्यन्त स्वाभिमानी, अक्खड़ एवं फक्कड़ लेखक थे। जन्म से वे ब्राह्मण थे, किन्तु जब जैन धर्म ने उन्हें आकर्षित किया तब वे पक्के जैन बन गए। प्रखर-प्रतिभा उन्हें पूर्व संस्कारों से प्राप्त थी ही। सम्भवतः किसी राजदरबार में अथवा किसी अहंकारी सेठ ने अहंकारवश उनका अपमान कर दिया, बस उन्होंने क्रोधित होकर अपनी गृहस्थी समेटी एक थैले में, और चल दिए अज्ञात दिशा में। चलते-चलते कई दिनों के बाद दूसरे राज्य में पहुँ वकर वे एक निर्जन जंगल में हाथ का तकिया लगाए एक वृक्ष के नीचे लेटे थे, तभी वहाँ से दो यात्री निकले और उनकी चिन्तित मुद्रा देखकर पूछा किं किर णिक्स हि णिज्जण वणंति ? पइसरहि ण किं पुरवरि विसालि ? अर्थात हे भाई, तुम इस निर्जन एकान्त वन में क्यों पड़े हुए हो? पास के नगर में क्यों नहीं चले जाते ? तब इसका उत्तर पुष्पदन्त ने इस प्रकार दिया तं सुणिवि भणइ अहिमाणमेरु, वर खज्जइ गिरिकंदरु कसेरु । णउ दुज्जण-भउहाँ वंकियाई, दीसंतु कलुस भावं कियाइँ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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